जड़, अपने अन्दर है।

April 1945

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दार्शनिक इमरसन कहा करते थे कि- “यदि मुझे नरक में रहना पड़े तो मैं अपने उत्तम स्वभाव के कारण वहाँ भी स्वर्ग बना लूँगा।” जिसकी मनोभावनाएं, विचारधाराएं, मान्यताएं उच्चकोटि कीं, सात्विक हैं उसके लिये सर्वत्र स्वर्ग ही स्वर्ग है, आनन्द हुआ दीखता है, उसके लिए इस लोक में या परलोक में कहीं भी नरक नहीं है। किन्तु जिसका दृष्टिकोण निकृष्ट है, नीति अच्छी नहीं हैं, भावनाएं संकुचित हैं, उसके लिए नरक का दावानल ही चारों ओर जल रहा है, न तो उसे इस लोक में संतोष है और न परलोक में ही रहेगा। नरक उसके हृदय में भरा हुआ है इसलिए जहाँ कहीं भी वह जायगा छाया की तरह नरक उसके पीछे-पीछे लगा फिरेगा। सब लोग उसे धोखेबाज, दुष्ट, सताने वाले और स्वार्थी दिखाई देंगे, मनुष्य भी ऐसे ही और स्वर्ग के देवता भी ऐसे ही।

उपरोक्त पंक्तियों में हमारा तात्पर्य यह बताने का है कि अपनी विचारधारा और मानसिक अव्यवस्था के ऊपर संसार का प्रिय और अप्रिय होना निर्भर है। इसलिए हम अपने जीवन को जैसा बनाना चाहते हैं स्वेच्छापूर्वक बना सकते हैं। जिन परिस्थितियों में हम रहना चाहते हैं, जो वस्तुएं प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें निस्सन्देह प्राप्त किया जा सकता है। इस प्राप्ति का सर्व प्रधान उपाय यह है कि अपने आप को अनुकूल बनावें, अपने अन्दर वह बल, योग्यता और आकर्षण पैदा करें जिसके द्वारा इच्छित वस्तुओं को प्राप्त किया जा सके। किसी वस्तु को प्रचुर मात्रा में प्राप्त करने और उसे अधिक समय तक टिकाये रखने के लिए व्यक्तिगत विशेषताओं की आवश्यकता है। किसी की कृपा से कुछ सुख सुविधा प्राप्त हो भी जाय तो वह न तो अधिक समय ठहरती है और न वह उसकी उन्नति में सहायक होती है, वरन् उल्टा विपत्ति में फँसा देती है। दुर्गुणी मनुष्य को यदि कहीं से एक लाख रुपया अनायास ही मिल जाय तो वह फैशन-परस्ती आदि दुष्कर्मों में थोड़े ही समय में उसे फूँककर बराबर कर देगा। उसके हाथ बीमारी, बदनामी, दुश्मनी, शोक, पश्चाताप ही रहेंगे। उस रुपये से जितना सुख उठाया था उसकी अपेक्षा अनेकों गुना दुख शोक उसके पल्ले बँध जायगा, इस प्रकार अन्ततः वह एक लाख रुपया उस दुर्गुणी मनुष्य की भीतरी और बाहरी अशान्ति का ही कारण बनेगा। उसका लोक और परलोक उससे बनेगा नहीं, उल्टा बिगड़ेगा।

एक उत्तम प्रकृति का, भले स्वभाव का आदमी छोटे घर में पैदा होकर भी अपने सद्गुणों के कारण लोगों के हृदयों में अपने लिए स्थान प्राप्त करता है। रुपया कमाता है, बड़ा बनता है यशस्वी होता है प्रतिष्ठा प्राप्त करता हैं, चारों ओर से उस पर सहायता बरसती है, सच्चे मित्र उसके स्वभाव सुगन्ध के कारण उसके आस-पास सदा ही मँडराते रहते हैं। ऐसी प्रकृति के मनुष्य के लिए उसकी गरीबी भी अमीरी से बढ़कर है। जो आनन्द और उल्लास बदमिजाज अमीरों को कभी स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता उसे वह अपनी मामूली दशा में भी प्राप्त करता है।

सुखों की कुँजी लोग बाहर तलाश करते हैं। अमुक देवों देवता, ग्रह, नक्षत्र, भूत पलीत, जन्त्र तन्त्र, राजा रईस, सन्त महन्त की कृपा से जो लोग अपने को सुखी बनाने की आशा करते हैं वे भारी भूल में हैं। दुनिया में केवल एक ही शक्ति है जो मनुष्य का उत्थान पतन करती है वह है- “अपनी मानसिक स्थिति” जो कोई महत्व को प्राप्त हुआ है इसी महाशक्ति की कृपा से हुआ है, जिसका नाश हुआ है इसी के श्राप से हुआ है। दूसरों की सहायता से हम अपनी इस शक्ति को उत्तमता के द्वारा स्थायी महत्व को प्राप्त कर सकते हैं किन्तु ऐसा नहीं हो सकता कि हमारी अयोग्यताएं जहाँ की तहाँ बनी रहें और अनायास ही सुख सौभाग्य प्राप्त हो जाय। चोरी, जुआ, बेईमानी आदि के द्वारा कोई व्यक्ति थोड़े समय में, बेईमानी आदि के द्वारा कोई व्यक्ति थोड़े समय मैं-अयोग्यताएं होते हुए भी धनी बन सकता है, परन्तु स्मरण रहे वह धन उसे आन्तरिक सुख जरा भी न दे सकेगा, उल्टी उसे अशान्ति और क्लेश की जलती ज्वाला में धकेल देगा। ऐसी सम्पत्ति का होना, न होने से भी बुरा है।

यदि आप चाहते हैं कि समाज में आपका आदर हो, हर जगह आपकी बात पूछी जाय, सर्वत्र आपकी प्रशंसा हो, सब लोग आपके ऊपर स्नेह रखें, सच्चे मित्रों, सहायकों की वृद्धि हो, स्वास्थ्य उत्तम रहे, किसी वियोग या विपत्ति का सामना न करना पड़े, घर वाले सिर आँखों पर रखें, बड़े-बूढ़े आशीर्वाद दिया करें, छोटे आज्ञा पालन में खड़े रहें, पत्नी प्राण के समान प्रिय समझे, बराबर वालों की भुजा समझे जावें, समाज आपको अपना नेता माने, आपके चेहरे पर प्रसन्नता नाचती रहे, अन्तःकरण आनन्द में डूबा रहे, सितारा आप का खूब चमके, मजदूर दूसरी जगह की अपेक्षा आपके यहाँ काम करना पसन्द करें, ग्राहक आपको छोड़ना न चाहें, यह सब बातें आपको प्राप्त हो सकती हैं, निश्चय हो सकती हैं। हम शपथ पूर्वक कहते हैं कि उपरोक्त सिद्धियों को प्राप्त करना मनुष्य के लिये बिल्कुल आसान है। यदि तीव्र इच्छा और दृढ़ साधना किसी में मौजूद है तो उसके लिए उपरोक्त स्थिति को प्राप्त करना एक हँसी खेल के समान है।

शास्त्र कहता है ‘सत्यं सुखं संजयति’ सत् से सुख उपजता है। यदि आप अपने को सुखी बनाना चाहते हैं तो अपने अन्दर दृष्टि डालिये, अपनी बुराइयों का सुधार कीजिए, अपने में सद्गुण उत्पन्न कीजिये। ‘स्व’ को सँभालते ही ‘पर’ सँभल जाता है। दुनिया दर्पण है, इसमें अपनी ही शकल दिखाई पड़ती है। पक्के मकान में आवाज गूँजकर प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है इसी प्रकार अपने गुण कर्म, स्वभावों के अनुरूप प्रत्युत्तर संसार से मिलता है। हम जिधर चलेंगे छाया भी पीछे-पीछे उधर ही चलेगी। इसलिए उचित है कि सुख प्राप्त करने का अपने को अधिकारी बनावें अपने आचरण और विचारों में समुचित संशोधन करें यही सफलता का मार्ग है।

शास्त्र कहता है ‘सत्यं सुखं संजयति’ सत् से सुख उपजता है। यदि आप अपने को सुखी बनाना चाहते हैं तो अपने अन्दर दृष्टि डालिये, अपनी बुराइयों का सुधार कीजिए, अपने में सद्गुण उत्पन्न कीजिये। ‘स्व’ को सँभालते ही ‘पर’ सँभल जाता है। दुनिया दर्पण है, इसमें अपनी ही शकल दिखाई पड़ती है। पक्के मकान में आवाज गूँजकर प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है इसी प्रकार अपने गुण कर्म, स्वभावों के अनुरूप प्रत्युत्तर संसार से मिलता है। हम जिधर चलेंगे छाया भी पीछे-पीछे उधर ही चलेगी। इसलिए उचित है कि सुख प्राप्त करने का अपने को अधिकारी बनावें अपने आचरण और विचारों में समुचित संशोधन करें यही सफलता का मार्ग है।


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