(ले.-श्रीमती प्रीतम देवी महेन्द्र, साहित्य रत्न)
प्रत्येक कार्य करते समय, किसी भी वस्तु को प्राप्त करते समय, दुःख में या सुख में एक तत्व पर सूक्ष्म दृष्टि रखिए और वह उत्कृष्ट तत्व है मन की समता। समस्त प्रकृति तथा नियति के प्रायः प्रत्येक कार्य में समस्वरता (Harmony) का तत्व कार्य कर रहा है। यह तुम्हारे मानसिक-यंत्र का एक विशिष्ट गुण है।
प्रकृति में कहीं भी व्यवधान नहीं, रुकावट नहीं, प्रतिबंध नहीं, स्थिरता आदि कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार मन में, उसके सूक्ष्म पुर्जों में पूर्ण समता होना अनिवार्य है। जब-जब तुम्हारे मन में क्षोभ-उत्पन्न होता है, मन के तन्तुओं में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। सब पुर्जे ऊट-पटाँग हो उठते हैं। ऐसी उत्तेजना में किया गया कोई कार्य सफल नहीं होता।
साँसारिक झगड़े, नित्य प्रति की इच्छाएँ, वासनाएँ, अन्तःकरण में उत्पन्न होकर क्षणभर में मनः प्रदेश में भयंकर उत्क्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं। हमारा चंचल मन जगत के परिवर्तन के साथ भटकने लगता है। संशय, भ्रम, भय के विषय जाल में मन फँस जाता है और हमें दीन दुनिया कहीं का नहीं छोड़ता।
हजारों व्यक्ति आज मन की समस्वरता को खो देने के कारण तिल का ताड़ बना रहे हैं। भूल तो स्वयं करते हैं तथा दोष दूसरे के सिर मढ़ते हैं।
यदि तुम कुछ समय के लिए साँसारिक झगड़ों से निवृत्त होकर शान्ति से अपने मन की परीक्षा करो तो तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम प्रकृति में बहने वाली महान समस्वरता (Harmony) से मिल कर कार्य कर रहे हो। आजकल यूरोप के अनेक सफल व्यक्ति दिन में काम धंधे से समय निकाल कर अपनी सफलता पर मन को एकाग्र करते हैं। अस्त-व्यस्त हुई शक्तियों का संग्रह करने से मनः समता की वृद्धि होती है।
प्रसिद्ध कवि वाल्टर स्कॉट की अद्भुत मनः समता देखिए। स्कॉट एक बार ऋण के बोझ से बिल्कुल दब गया था। उसके मित्रों ने उसकी सहायता करनी चाही पर उसने यह बात स्वीकार नहीं की और स्वयं अपनी प्रतिभा ही का आश्रय लेकर लाखों रुपये का ऋण उतारा। विपद् में समस्वरता अपूर्व बल है।
प्रतिदिन नियत समय पर किसी एकान्त कमरे में बैठो। ऐसी व्यवस्था रहे कि जिससे तुम्हारे इस समय में तनिक भी बाधा उपस्थित न हो। फिर शान्त मन से आराम से बैठ जाओ, शरीर को निष्क्रिय कर लो। शीघ्र ही कुछ क्षण के लिए मन से क्रोध, ईर्ष्या, उद्वेग, इत्यादि उत्तेजनाओं को मन से बार्हिगत करो ओर अपनी शक्तियों को केन्द्रित करने का ध्यान करो। शान्तिपूर्वक मानसिक गंभीरता का अनुभव करो। फिर सोचो कि- मैं प्रकृति में बहने वाली महान समाधानी (Harmony) की धारा का एक बिन्दु हूँ। उसी अखंड आत्मा का एक भाग हूँ। उससे च्युत नहीं हूँ। वही प्राण, वही आत्मा वही श्वास मुझमें है। ऐसे एकता के दिव्य विचारों में तुम्हें ऐसा अनुभव होगा कि तुम इस शान्त, मधुर और स्थिरता की दशा में प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर रहे हो-एक हो रहे हो। इस तादात्म्य (nity) की अवस्था में तुम्हें ऐसा अनुभव होगा कि जैसे तुम्हारे अंग प्रत्यंग में नया बल, नया उत्साह एक नई शक्ति का संचार हो रहा है।
संसार की जितनी भी शक्तियाँ हैं, वह सब उस मनुष्य की रक्षा एवं सहायता करने को प्रस्तुत हैं, जिसने समाधानी (Harmony) के तत्व को ग्रहण किया है और अपनी आत्मा का सर्वाधिकार स्वामी है।