(श्री गोपाल प्रसाद ‘वंशी’ बेतिया)
ज्ञान से ही मनुष्य संसार में सुख पाता है और इसकी कमी से बन्धन में आकर दुख उठाता है। जिसका ज्ञान पूर्ण है सफलता उसका ही साथ देती है। ज्ञान में दोष आ जाने से असफलता की बहुलता से मनुष्य दुखी रहा करता है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर कोई भी पवित्र वस्तु नहीं है। यह आत्मा का स्वाभाविक गुण है और परमात्मा ज्ञान स्वरूप है। जब ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अन्धकार दूर हो जाता है तब जन्म मरण के बन्धनों से रहित ही मनुष्य अभूत मार्ग का यात्री बन जाता है, ऐसा ज्ञानवान पुरुष सब अवस्थाओं में अपने आप को परमात्मा के अर्पण कर देता है।
हम बाह्य विषयों में जिस सुख को ढूँढ़ना चाहते हैं, वह वस्तुतः अपने अन्दर ही है। हमें उसकी प्राप्ति के लिए क्षुद्रताओं से अलग रहना एवं इन्द्रिय लोलुपता का यथा संभव निराकरण करना होगा। उस वासना को दबाना होगा जो स्थिर, शाँत, आत्मसागर में काम, क्रोध, लोभादि तरंगें उठाकर उसे अशान्त तथा विक्षुब्ध किया करती है। इन सारी बातों के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। संसार की प्रत्येक भावों की परीक्षा करना, सत्-असत् की यथार्थतः पहचान एवं अपने उपयोग की वस्तुएं ग्रहण करना तथा अनुपयुक्त का त्याग, यह सब ज्ञान से ही साध्य हैं। यह ज्ञान स्वाध्याय और संगति से प्राप्त होता है। सद्ग्रंथों का अध्ययन करते रहना तथा ज्ञानियों का सत्संग, समय और सुविधा के अनुसार प्राप्त करना मनुष्य जीवन को सुधारने के लिए अत्यावश्यक है। जिस समाज या देश में यथार्थ ज्ञानियों की जितनी ही अधिक संख्या होगी, उसकी उतनी ही अधिक आत्मोन्नति हो सकेगी और वही मनुष्य, समाज अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त होगा। ऐसे उपयोगी ज्ञान यज्ञ के आयोजन में प्रत्येक मनुष्य को अवश्य ही भाग लेना चाहिए।