मैं अन्धा हूँ, पर-आपको तो दीखता है।

April 1945

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(लेखक- पं. पीतमराम जी सूर ज्योतिर्विद्)

मैं जन्म से अन्धा हूँ। माता के उदर से इस धरती माता पर जब से मैं आया हूँ तब से मैंने यह नहीं जाना कि इस दुनिया की वस्तुओं का रंग-रूप आकार प्रकार कैसा है? आप लोग जो इस लेख को पढ़ रहे होंगे आँखों वाले हैं, इसलिए आप लोगों के लिए यह अनुभव करना कठिन है कि एक अन्धा आदमी कितना अपूर्ण होता है, उसका आगे बढ़ने का मार्ग कितना संकुचित और कठिनाइयों से भरा हुआ होता है।

मेरे पिता जी बचपन में स्वर्ग सिधार गये थे करुणामयी माता ने मुझे वैसे ही स्नेह से पाला जैसे कि कोई भावुक माता अपने आँखों वाले बालक को पालती है। जब कुछ बड़ा हुआ, लाठी के सहारे रास्ता टटोल के घर गाँव से बाहर आने-जाने में समर्थ हुआ तो मन में तरह-तरह की आकांक्षाएं उठने लगीं। कानों से दुनिया वालों की बातें सुनता था, लोग कैसा उन्नति शील, आनन्दमय, यशस्वी जीवन व्यतीत करते हैं परन्तु आह। मैं तो अन्धा हूँ, मेरी उन्नति के सभी द्वार बन्द हैं। क्या कर सकता हूँ? कैसे कर सकता हूँ? सोचता और मन मसोस कर रह जाता।

आकाँक्षाओं ने मुझे चैन से बैठने न दिया। भरतपुर स्टेट का उमावली गाँव जिसमें मैं जन्मा हूँ, बहुत छोटी अशिक्षित लोगों की बस्ती है, यहाँ विद्या का प्रचार नहीं है तो भी मैंने विद्या पढ़ने का आश्रय तलाश किया। पढ़ने वालों की बगल में बैठा-बैठा ध्यानपूर्वक सुनता रहता, हिसाब, गणित, भूगोल-भाषा, व्याकरण आदि में सुन-सुन कर ही मैंने अपना अनुभव बढ़ा लिया। रेत में उँगली से लिख कर अक्षर बनाना मैंने सीख लिया। आँखों से देख कर पढ़ नहीं सकता, इसके अतिरिक्त उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों से और किसी बात में कम नहीं रहा।

संस्कृत का मैंने अध्ययन किया। दूसरों से पुस्तकें पढ़वाता और खुद उन्हें हृदयंगम करता। यह कार्य यों ही आसानी से नहीं हो गया। पितृ विहीन, धन हीन, असहाय अन्धे को छोटी सी देहात में रहते हुए यह सब कितनी कठिनाइयों से हो सका इस सबको आप अनुभव नहीं कर सकते। अभाव और कठिनाइयों से मैंने बीस वर्ष तक निरंतर युद्ध किया और विद्याध्ययन के अपने कार्य को जारी रखा। धर्म शास्त्र और तत्पश्चात् ज्योतिष को मैंने पढ़ा ज्योतिष का विषय बड़ा कठिन है, बड़े बारीक और लम्बे गणित उसमें करने पड़ते हैं। इन गणितों में आँखों वाले भी चूक जाते हैं, ऐसे कठिन विषय को मैंने विशेष दिलचस्पी के साथ अपनाया और ग्रहों के गतिचार की सूक्ष्म गणनाओं में विशिष्ठ निपुणता प्राप्त कर ली।

अब में इष्ट, जन्म पत्र, वर्ष फल आदि शुद्ध शास्त्रोक्त रीति से बनाता हूँ। मेरा मस्तिष्क और कर्क की आंखें दोनों, मिलाकर एक पूरा आदमी बनता है। इस प्रकार ज्योतिष संबन्धी कार्य से अपनी आजीविका बड़ी सुविधापूर्वक चला लेता हूँ, इस प्रदेश में अपनी योग्यता के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध हूँ, अनेक पत्र पत्रिकाएं पढ़ जाता हूँ, नित नई पुस्तकों से मानसिक भोजन प्राप्त करता हूँ। प्रसन्न रहता हूँ और आनन्दमय जीवन व्यतीत करता हूँ।

मैं इस लेख के पाठकों से पूछता हूँ कि मैं जन्म से अंधा आदमी जब अपनी इच्छा और प्रयत्न के द्वारा इतना सब कर सकता हूँ तो आप लोग जिनकी दोनों आँखें हैं और अनेक प्रकार के साधन प्राप्त हैं क्या अपने जीवन को उन्नतिशील नहीं बना सकते? अंधे की अपेक्षा अनेक गुना पुरुषार्थ क्या आप लोग नहीं कर सकते? आँखें होते हुए भी यदि आप अभाव और अविद्या का हीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो यह आप के मनोबल और उद्योग की कमी का दोष है, जिसे सुधार लेना पूर्णतया आपके हाथ की बात है।


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