अन्तःकरण की चिकित्सा

April 1945

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(डॉक्टर दुर्गाशंकर जी नागर सम्पादक ‘कल्पवृक्ष’)

मनुष्य जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसे आकर्षित करने का बलवान लोह चुम्बक उसमें है, किन्तु अज्ञान के कारण क्षुद्र वस्तुओं को प्राप्त करने को दौड़ रहा है। यह सब कुछ अन्तःकरण की स्थिति पर निर्भर है। अन्तःकरण की उच्च स्थिति सामर्थ्य सम्पन्न है तथा नीच स्थिति सामर्थ्य हीन है।

आज एक व्यक्ति तुच्छ माना जाता है, उसे कोई नहीं पूछता। कल वही राष्ट्र का नायक बन जाता है। आज एक मनुष्य घर-घर भीख माँग रहा है, कल वही धनाढ्य हो जाता है। असंख्य मनुष्यों को धन अन्न बाँटता है एवं भोजन कराता है। आज एक मनुष्य साधारण हीन बुद्धि का है, कल वही प्रतिभा सम्पन्न होकर संसार को हिला डालता है तथा महापुरुष माना जाता है। मनुष्य में ऐसा विचित्र आकर्षण बल है और यह उसकी अन्तःकरण की उच्च स्थिति पर अवलम्बित है।

ऐ मनुष्य! तुझ में अद्भुत सामर्थ्य का स्त्रोत है। तुझसे संसार में कोई बड़ा नहीं है। तेरी महिमा अपार है। अब भी तू अपने को गोबर का कीड़ा मान रहा है। उठ जागृत हो! अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो और उसकी ज्योति से अद्भुत सामर्थ्य प्रकट कर! सब हिचकिचाहट, दुर्बलता, अशक्तता को दूर कर दे। सब बोझ उतार दे। सब संशयों को, सन्देहों को भस्मीभूत कर दे। अपने आप से बाहर मत भटक। अपने केन्द्र में, आत्मस्वरूप में जमा रह। विश्व से एक स्वर हो जा और सारे संसार को तू चलाने लगेगा।

दुख से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है- अपने अंतःकरण की स्थिति को उच्च बनाओ। अपने में उतरो। अपनी आत्मा के मंगलमय स्वरूप के दर्शन करो और दुःख की सत्ता निःशेष हो जायी।

सब दुःखों से मुफ्त होने का, सब प्रलोभनों से ऊपर उठने का एकमात्र उपाय अपने आत्म स्वरूप का अनुभव करना है। किसी का सहारा मत पकड़ो। अकेले खड़े रहो। अपने अंतर स्थिति की सत्ता-परमात्मा सत्ता का ही एक आधार रखो। उसी में पूर्ण विश्वास रक्खो। उसी में निवास करो और कोई भी मनुष्य तुम्हारे विरुद्ध आवाज न उठा सकेगा और कोई भी तुम्हें सत्पथ से न हिला सकेगा।

परमात्मा में, आत्मस्वरूप, में दृढ़ श्रद्धा की पालन करने से ही अन्तःकरण की उत्कृष्ट स्थिति होती है, जो सब दुःखों को, क्लेशों को, दीनता को जन- जीवन को दिव्य बनाती है। यही अन्तःकरण की चिकित्सा है।


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