धर्म और विज्ञान में विरोध नहीं

April 1945

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज)

साइन्स और आस्तिकवाद की शत्रुता बहुत पुरानी नहीं है। प्राचीन आस्तिकवादी सृष्टि के नियमों को अवलोकन करके ही ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते थे। परन्तु कुछ दिनों पश्चात् साइन्स और आस्तिकवाद में झगड़ा हो गया। आस्तिकवादी समझने लगे कि ईश्वर का सृष्टि-रचना से क्या सम्बन्ध, उन्होंने मन माने गुण ईश्वर में आरोपित करने शुरू कर दिये। ज्ञान मार्ग का अन्त हुआ और भक्ति मार्ग चला। भक्ति मार्ग ने अंधविश्वास को बढ़ाया, इसी के साथ साइन्सवाद का ह्रास हुआ। इसके बाद साइन्स का पुनरुत्थान पश्चिम में हुआ। उस समय वहाँ आस्तिकवाद तो न था, परन्तु उसी के नाम पर अन्धविश्वास अवश्य फैला था। प्राचीन भारतवासी तो ज्ञान को ईश्वर प्राप्ति तथा मोक्ष का साधन मानते थे। नवीन काल में साइंस या विज्ञान को अनीश्वरता का एक चिह्न समझने लगे।

साइंस और धर्म का झगड़ा यूरोप से आरम्भ हुआ। उस समय यूरोप में ईसाई धर्म का प्राबल्य था। ईसाई धर्म का अर्थ ही यह था कि पोप जो कुछ कह दें वही सत्य है। मनुष्य को आँख कान खोलकर चलने की वहाँ आज्ञा न थी। परन्तु जब कुछ लोगों ने आँख कान खोलकर सृष्टि का अवलोकन करना आरम्भ कर दिया तो धर्माध्यक्षों ने उनका विरोध किया। इसलिये गैलीलियो आदि स्वतंत्र विचारकों को अन्वेषकों को कड़ी यन्त्रणाएँ दी गईं। यह लड़ाई का आरम्भ था और इस वैमनस्य ने जो पहला प्रभाव साइंस वेत्ताओं के हृदय पर डाला, वह यह था कि हमारे ऊपर अत्याचारों का कारण आस्तिकवाद है। ज्यों-ज्यों आस्तिकवादी सी-कॉपी में कटा हुआ है ईश्वर के निराधार सिंहासन को सी-कॉपी में कटा हुआ है। से बचने का यत्न कर रहे थे, त्यों त्यों साइंस वालों को आस्तिकवाद की निर्मूलता का विश्वास होता जाता था। इसमें भूल दोनों ओर से थी, परन्तु अधिक भूल धर्माध्यक्षों की ओर से थी। यदि धर्माध्यक्ष के अन्वेषण में लगे हुए हैं जिन नियमों की आस्तिकवादी पूजा किया करते हैं तो साइंस, धर्म से विरुद्ध न होकर सच्चे आस्तिकवाद की महत्ता दिखलाने में संलग्न होती। साइंस वालों को यह सोचना चाहिए था कि आस्तिकवाद केवल उन्हीं सिद्धान्तों का नाम नहीं हैं जो अन्ध विश्वासियों ने प्रचलित कर रखें हैं। परन्तु जब आस्तिकवाद के नाम पर साइंस वालों के प्राण लिये जाने लगे और उनको देखने-सुनने और सोचने की आज्ञा न रही तो मरता क्या न करता। उन्होंने खुले मैदान में लड़ना आरम्भ कर दिया। यह युद्ध यहाँ तक बढ़ा कि साइंस वालों को आस्तिकवाद नाम तक से भी घृणा हो गई और वह घृणा अब तक चली आ रही है। यह बात नहीं है साइंस वाले सभी उसी पुराने विचार के हैं। साइंस की वर्तमान उन्नति ने साइंस वालों को भी इस बात का निश्चय करा दिया है कि चाहे विशेष प्रकार का आस्तिकवाद झूठा और निर्मूल हो, तथापि साइंस के नियमों के लिये किसी न किसी नियन्ता की आवश्यकता है। वस्तुतः विचार किया जाय तो साइंस और आस्तिकवाद एक दूसरे से विरुद्ध नहीं हैं। साइंस क्या है? सृष्टि की घटनाओं का भली-भाँति निरीक्षण करना कि यह अनियमित नहीं हैं फिर उन नियमों का वर्गीकरण करना-इसी का नाम साइंस है। साइंस की जैसे-जैसे उन्नति होती जाती है, वैसे ही संसार के वर्तमान नियमों का उसे पता लगता जाता है। इन नियमों का पता लगाकर इसके आगे न बढ़ना और यह मान लेना कि यह नियम स्वयं ही बिना किसी बुद्धी तथा इच्छा या शक्ति के काम करते रहते हैं, साइंस के मौलिक नियमों का स्वयं खण्डन करना है। जो साइंस- वेत्ता अन्वेषण आरम्भ करता है कि साइंस की घटनायें एक दूसरे से असम्बद्ध नहीं है, वरन् वे नियम रूपी सूत्रों में पिरोई हुई हैं। यदि ऐसा न हो तो साइंस वालों को आगे बढ़ने का साहस भी न होता, साइंस एक पग भी उन्नति न कर सकता। जैसे एक साइंस वेत्ता ने एक शीशी भर जल का विश्लेषण करके यह पता लगाया कि शीशी का उतना जल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से मिलकर बना है। अब उनको यह भी विश्वास है जो नियम इस शीशी भर पानी में काम करता वही संसार के अन्य जलों में कार्य कर रहा है। इस प्रकार समस्त साइंस का मूलाधार सिद्धान्त यह है कि संसार की सारी घटनायें असम्बद्ध नहीं किन्तु नियमबद्ध हैं। यह सिद्धांत उस समय भी था, जब साइंस छोटा सा बच्चा था, अब भी है जब कि साइंस इतनी उन्नति कर गया है। आगे भी करता रहेगा। साइंस केवल इतना ही नहीं मानता कि संसार की घटनायें नियमबद्ध हैं। किंतु वह इससे आगे चल कर यह मानता है कि यह नियम भी स्वयं एक और सूक्ष्म नियम सूक्ष्मतर नियमों के साथ बंधे हुए हैं। जब साइंस ने इतना मान लिया तो फिर उन नियमों के लिए चेतना अर्थात् ज्ञान और इच्छा शक्ति की आवश्यकता न समझना साइंस वेत्ताओं को शोभा नहीं देता। इसीलिए बड़े साइंस वेत्ता आगे किसी चेतन शक्ति पर साइंस करते हैं या केवल यह कहकर संतुष्ट हो जाते हैं कि हमारी गति केवल इन्हीं नियमों तक ही हैं। अभौतिक संसार इसकी सीमा से बाहर है। इसका यह उत्तर भी यह प्रकट करता है कि वे भौतिक नहीं हैं। केवल आस्तिकवाद के सिद्धान्तों अनभिज्ञ हैं।

वैदिक सिद्धान्त साइंस (विज्ञान) और धर्म दोनों को स्थान देता है। साइंस भौतिक जगत् का परीक्षण करता है और धर्म अभौतिक सत्ता का परीज्ञान कराता है।


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