(ले.- डा. रामनरायण श्री वास्तव ‘हृदयस्थ’ ग्वालियर राज्य)
भारत में उस समय सम्राट हर्ष की प्रतिमा का प्रकाश फैल चुका था, उसके शौर्य, प्रताप, प्रजा पालन, न्याय प्रियता दयालुता आदि अनेक सद्गुणों ने देश में शाँति तुष्टि, पुष्टि की संस्थापना सी कर दी थी, यद्यपि राजाश्रय बौद्ध धर्म को ही प्राप्त था तथापि राज्य में फैले हुये सनातन, हिन्दू धर्म का भी उचित सम्मान था, सुदूर देश से विभिन्न यात्रियों और प्रचारकों को आने की पूर्ण सुविधा थी।
भारत के पूर्व उत्तर प्रदेश वर्ती ‘फाहियान’ के निर्भीक आश्रय का संदेश प्राप्त होते ही शासक द्वारा उसकी विज्ञप्ति पर्याप्त रूप से भारत में प्रकाशित कर दी गई- ‘मेरा विचार है कि भारत वर्ष ईश्वरवाद का चिर समर्थक है मैंने पृथ्वी के अधिकाँश देशों में भ्रमण करके अपने मन की (जिसे तुम सम्भवतः नास्तिक के नाम से पुकारोगे)पुष्टि में सफलता पाई है उस सब के समक्ष सिद्ध करने को तैयार हूँ, मेरा निश्चय है कि वर्षा प्रारंभ होने के प्रथम ही भारत वर्ष में आकर शास्त्रार्थ सम्पादित किया जावे। 1. ईश्वर का अस्तित्व, 2. ईश्वर का कार्य, 3. उसे प्राप्त करने का सफल उपाय, उसके विषय होंगे, विजयी मत सर्वसम्मत एवं मान्य होगा।
धर्म प्राण देश का अधिकारी सज्जन समुदाय इस महान कार्य की सफलता में संलग्न था जिसमें कि चिरन्तन भावनाओं का साफल्य अन्तर निहित था।
धर्म क्षेत्र ही धर्म युद्ध का प्रांगण बना उस शास्त्रार्थ में भाग लेने वाले महोदयों की संख्या अप्रमेय थी। उभयपक्ष अपने सिद्धान्तों के मंडन तथा विपक्ष खण्डन में अविराम तीन दिन लगे रहे, तथापि अनीश्वर बाद की विजय सी मानकर करतल ध्वनि में उसकी विजय घोषणा मुखरित हो पड़ी-
इस असंख्य जन समूह से सुदूर खड़े हुए एक द्वादश वर्षीय बालक ने पास खड़े हुए एक दर्शक महाशय से कहा कि यदि मुझे सभा मंच के समीप पहुँचा दिया जाय तो मैं विपक्ष के प्रश्नों का समुचित उत्तर देने समर्थ हो सकता हूँ। डूबते हुये को तिनके का सहारा अथवा, तृषा से मुरझाये हुए को एक बृंदअल में जीवन की आशा उस बालक को हाथों हाथ कुछ क्षणों में ही रंग भूमि में उपस्थित कर दिया गया उसने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुये सबको सम्यक् शान्त होने की प्रार्थना की साथ ही उन अनीश्वरवादियों का उचित समाधान करने की आशातीत प्रतिज्ञा भी।
सभा में जन-जन उत्सुक किन्तु शाँत था बालक सर्वोच्च आसन पर विराजमान होकर समझा रहा था, ईश्वर है।
तुम्हारे अन्तरमन में प्रादुर्भूत अभिमान के प्रबल प्रवाह वेग को कोई भी जन नहीं देख सका था किन्तु उस सर्वदृष्टा ने उसे देख लिया और उसी की यह प्रेरणा है उसका संकेत अपनी ओर था। ईश्वर का कार्य!
मुझ जैसे नगण्य तथा क्षुद्र काय बालक को इस उच्च आसन पर बिठाने में दृष्टिगत कोई भी मानव समर्थ नहीं था यह उसकी महान सत्ता का ही कार्य है कि मैं आपके समक्ष इस प्रकार कुछ कहने में सक्षम हुआ। ‘उसे प्राप्त करने के सफल उपाय।’
अनेकों हैं हमारे पूर्वज महर्षियों ने उसे प्राप्त करने की क्रियाओं का समुचित दिग्दर्शन शास्त्रों द्वारा कराया है किन्तु वे सर्व साध्य नहीं हैं। आप केवल उस जनार्दन की प्रस्फुटित जनता में ही अनन्य प्रेम करके उसके प्रत्यक्ष दर्शन पा सकोगे?
तीनों प्रश्नों का मनोतीत उत्तर संक्षेपतः किम्बा सार गर्भित रूप में पाकर विदेशियों के शीश श्रद्धा से नत हो गये (‘धर्म की जय’ जनता में उल्लास था, और सरल बालक विदेशियों के हाथों पर !
अपने देश में जाकर उन्होंने भारतवर्ष के प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की ऐसा उनकी लेखनी आज भी परिचय दे रही है।