धर्म बड़ा या अधर्म?

August 1943

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त्रेता युग में गोमती के निकटवर्ती भूखंड पर राज्य करने वाले राजा भौवन के राज्य में एक गौतम नाम का व्यक्ति रहता था। उसकी मणि कुण्डल नामक सहपाठी से गहरी मित्रता थी। गौतम बाहर से तो बड़ा भृदु भाषाी था पर भीतर ही भीतर उसके मन में कपट कटारी चलती रहती थी। मणिकुण्डल में ऐसी बात न थी वह बाहर और भीतर समान रूप से धर्म प्रेमी था।

जब दोनों मित्र बड़े हुए तो धन कमाने की कोई योजना सोचने लगे। अन्त में यह निर्णय हुआ कि परदेश जाकर कुछ व्यापार किया जाय। दोनों मित्र साथ-साथ परदेश जाने के लिए तैयार हो गये। व्यापार के लिए कुछ रुपये की आवश्यकता थी मणिकुण्डल ने अपने घर से धन ले लिया लेकिन गौतम ने कुछ न लिया। उसने यह बदनीयती विचारी कि जैसे होगा वैसे मणिकुण्डल का धन हरण कर लूँगा और वापिस लौट आऊंगा।

दोनों मित्र मंजिलें तय करते हुए सुदूर पूर्व के लिए चले जा रहे थे। एक दिन रास्ते में गौतम ने यह बहस छेड़ी कि धर्मात्मा होना व्यर्थ है क्योंकि धर्म करने वाले सदा दुख भोगते हैं इसके विपरीत अधर्मी सदा सुखी रहते हैं इसलिए मनुष्य को अधर्म ही अपनाना चाहिए। मणिकुण्डल को यह पक्ष सहन न हुआ वह धर्म की महत्ता पर जोर देने लगा। आखिर वर उनका विवाद बहुत बढ़ गया। अन्त में दोनों ने यह निश्चय किया कि जिसकी बात ठीक हो वह दूसरे का सारा धन ले ले।

वे यात्रा कर रहे थे और रास्ते में जो मिलता उसी से पूछते जाते थे कि धर्म करने वाले सुखी रहते हैं या अधर्म करने वाले? जिससे पूछा उसने यही उत्तर दिया भाई धर्मात्माओं को तो निरे कष्ट सहने पड़ते हैं सुखी तो अधर्मी ही रहते हैं। सब जगह जब यही उत्तर मिले तो गौतम ने मणिकुण्डल का सारा धन शर्त के अनुसार ले लिया।

फिर भी मणिकुण्डल के विचार न बदले वह बार-बार धर्म पर जोर देता था। कहता था धर्म से बढ़कर अधर्म कदापि नहीं हो सकता गौतम ने कहा यदि तुम्हारा अब भी यही विश्वास है तो फिर शर्त लगाओ जो जीते वह दूसरे के हाथ काट ले। मणिकुण्डल रजामंद हो गया। फिर उसी क्रम से राहगीरों से पूछताछ शुरू हुई तब भी वही उत्तर मिले सब लोग वही कहते- हमने तो अधर्मियों को ही आनंद से रहते देखा है। आखिर गौतम ही जीता उसने शर्त के मुताबिक हाथ भी काट लिये। हाथों को कटा कर भी मणिकुण्डल अपने विश्वास पर दृढ़ रहा और धर्म के ही गुणगान करता रहा। इस बार हारने पर आँख निकाल लेने की बाजी पढ़ी गई। पूछने का वही क्रम था उत्तर भी वही मिले, नतीजा भी वैसा ही हुआ। गौतम ने उसकी आँखें निकाल लीं और वहीं चीखता छोड़ कर अपने घर वापिस लौट आया।

निर्जन वन में एक छोटे शिवालय के पास हाथ और नेत्रों को खोकर मणिकुण्डल असहाय पड़ा रो रहा था। वह सोच रहा था- हे भगवान, क्या सचमुच ही धर्म से अधर्म बड़ा है। अधर्म को अपनाने से गौतम को मेरा सारा धन अनायास मिल गया और मैं धर्म पर आरुढ़ रहने के कारण यह विपत्ति भोग रहा हूँ। उसकी फूटी हुई आँखों में से रक्त की धाराएं बह रही थीं।

उस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी थी। लंका के राजा विभीषण का पुत्र वैभीषिक उसी दिन उस शिवालय में पूजा करने आया करता था। आज संध्या समय वह जैसे ही शिवालय पर पहुँचा तो देखता क्या है कि एक नवयुवक मंदिर के पास ही पड़ा हुआ पीड़ा से छटपटा रहा है, किसी ने उसके हाथ काट लिये थे और नेत्र फोड़ दिये थे, वैभीषक ने अपनी आत्मशक्ति द्वारा सारी घटना जान ली, धर्मात्मा की यह दुर्दशा देखकर उसका हृदय दया से भर गया।

राम रावण के युद्ध के समय लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत उठा कर लाये थे जिस पर संजीवनी बूटी थी, हनुमान जी के हाथ से द्रोणागिरी का एक टुकड़ा इस शिवालय के निकट गिरा था और उस पर संजीवनी बूटी जम गई थी, वैभीषक उसे जानते थे, उन्होंने उस बूटी को लाकर उस घायल को पिला दिया, उस बूटी के प्रभाव से मणिकुण्डल को हाथ और नेत्र फिर से प्राप्त हो गये, वह हरे-हरे कहता हुआ प्रसन्नतापूर्वक उठकर बैठ गया वैभीषक के हाथ में संजीवनी बूटी का जो टुकड़ा शेष था, वह मणिकुण्डल को दे दिया और कहा बेटा, यह बूटी अंग-भंग के अंगों को फिर जिन्दा कर सकती है, इसे ले जाओ यह तुम्हें फिर काम देगी अब तुम अपने घर वापिस चले जाओ वह प्रसन्नतापूर्वक उस बूटी को साथ लेकर घर को वापिस लौट पड़ा।

रास्ते में एक महापुर नामक राज्य पड़ता था, उस राजा के एक ही बेटी थी, जो अन्धी थी, राजा ने यह घोषणा कर रखी थी कि जो कोई इसकी आँखें अच्छी कर देगा उसी को मैं बेटी ब्याह दूँगा और दहेज में सारा राज दे दूँगा, मणिकुण्डल ने यह सुना तो राजा के पास पहुँचा और आँखें अच्छी कर देने का आश्वासन दिया, बूटी को पिलाते ही बेटी की आँखें अच्छी हो गईं अब तो राज दरबार में आनन्द ही आनन्द छा गया, राजा ने बड़ी धूम-धाम से उसी के साथ बेटी का विवाह कर दिया मणिकुण्डल राज का मालिक होकर आनन्दपूर्वक जीवन बिताने लगा।

उधर गौतम अपने मित्र का धन हरण करके घर पहुँचा और जुआ, शराब तथा वेश्याओं में धन को उड़ाने लगा कुछ ही दिनों में वह सारा धन खर्च हो गया और वह दीन, दरिद्र भिखारियों की तरह इधर-उधर मारा-मारा फिरने लगा।

मणिकुण्डल को अपने मित्र की याद आई, उसने रथ भेजकर गौतम को अपने यहाँ बुलाया और बड़े आदर से अतिथि सत्कार किया, जाते समय उसे बहुत सा धन पुरस्कार दिया और कहा- मित्र, वास्तव में धर्म करने वाले ही सुख पाते हैं, अधर्म से कोई मन का धन भले ही कर ले पर वह अन्त में दुख देकर विदा हो जाता है, धर्म की जड़ गहरी है, धर्म के वृक्ष पर फल आने में कुछ देर लगती है पर वह बहुत समय तक फल देता रहता है।


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