लोक सेवा का प्रधान साधन

August 1943

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(ले. श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर)

उन घोर दुर्भिक्ष के दिनों में भूख से पीड़ित असंख्य लोग मरने लगे तो दया द्रवित होकर भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों से पूछा- क्या तुम में से कोई इन क्षुधा पीड़ित लोगों को भोजन कराने का जिम्मा ले सकता है ?

लक्षाधीश रत्नाकर ने गरदन नीचे झुका ली और निराश वाणी में कहा भगवन् मेरे पास जितना धन है, उससे कई गुना अधिक इन भूखों को भोजन कराने के लिये चाहिये।

सेनापति जयसेन बोले-भन्ते! आपकी आज्ञा पर मैं प्राणों का उत्सर्ग तो कर सकता हूँ, पर इन भूखों को भोजन कराने योग्य सामग्री कहाँ से दे सकता हूँ?

जमींदार धर्मपाल ने एक ठण्डी साँस खींची और कहा- इस बार वर्षा कम होने के कारण मेरे सारे खेत सूख गये। राज्य-कर अदा करने के लाले पड़ रहे हैं, इन भूखों की कैसे सहायता करूं?

सभा के सब लोग सन्न बैठे हुए थे, किसी को कोई उपाय सूझ न पड़ रहा था। अन्त में एक भिक्षुक बालिका सुप्रिया उठी, उसने सिर झुकाकर नम्रतापूर्वक कहा-’मैं इन भूखों को भोजन कराऊंगी।’

उपस्थित लोग आश्चर्यचकित होकर उसकी ओर देखने लगे। एक साथ सैंकड़ों कंठों ने पूछा-’यहां साधन रहित बालिका किस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेगी?’

सुप्रिया ने कहा- भद्र पुरुषों, सद्भावना मेरी शक्ति और पवित्रता मेरी सम्पत्ति है। मैं अपना टूटा फूटा भिक्षा पात्र लेकर आप सब लोगों के दरवाजे पर भूखों के लिए भिक्षा मागूँगी और अपना प्रण पूरा करूंगी।

परोपकारी सार्वजनिक कार्यों के लिए भिक्षा को प्रधान साधन बनाया जा सकता है।


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