ऋण का परिशोध!

August 1943

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निकोलस और वेक इंग्लैंड के वेस्ट मिनिस्टर स्कूल में साथ-साथ ही पढ़ते थे। दोनों की प्रकृति में बड़ा भारी अन्तर था, एक भीरु था दूसरा निर्भीक फिर भी दोनों में गहरी मित्रता थी।

एक दिन अध्यापक महोदय किसी काम से बाहर गये हुए थे, लड़कों ने पढ़ना बन्द कर दिया और ऊधम मचाने लगे। शरारती लड़कों में निकोलस सबसे आगे था। उसने सोचा कोई ऐसा काम करना चाहिए जिससे सब लड़कों को मजा आवे। इधर-उधर खोज करने के बाद उसकी निगाह एक दर्पण पर रुकी उसने कहा- यदि इसे फोड़ दूँ तो कैसा अच्छा हो। आवेश में उसके हाथ आगे बढ़ गये एक झोंके की तरह पत्थर का टुकड़ा उसने दर्पण पर दे ही तो मारा। दर्पण गिरा और गिर कर चूर-चूर हो गया।

दर्पण गिरते ही निकोलस की सारी शरारत का फुर हो गई। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। शिक्षक द्वारा कठोर दंड मिलने की विभीषिका उसकी आँखों के आगे नाचने लगी। हो सकता था उसे स्कूल से निकाल दिया जाय।

सारे स्कूल में सन्नाटा छाया हुआ था, किसी के मुँह से एक शब्द नहीं निकल रहा था। लड़कों की झुकी हुई गर्दन मानो निकोलस के अपराध को स्वीकार कर रही हों। अध्यापक ने आकर यह विचित्र निस्तब्धता देखी तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, रहस्य को जानने के लिये इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। उन्होंने देखा कि सामने के फर्श पर स्कूल का कीमती शीशा टूटा हुआ पड़ा है। अध्यापक की आँखों में आग बरसने लगी।

उन्होंने गरजते हुए कहा- यह शरारत जिसने की है, वह उठकर खड़ा हो जाय। शिक्षक ने अपने आदेश को कई बार दुहराया, पर उस निस्तब्धता को तोड़ने की किसी को हिम्मत न हुई। भय और आशंका से सब की नसें जकड़ गई थीं। अध्यापक ने बारी-बारी सब से पूछना शुरू किया। लड़के मना करते जा रहे थे। निकोलस की बारी आई तो उसने भी इन्कार सूचक शिर हिला दिया।

अब वेक का नम्बर आया, उसने सोचा निकोलस मना कर चुका है, पीछे भेद खुलेगा ही, इसे दंड भी सहना पड़ेगा और अध्यापक की दृष्टि में झूठा भी ठहरेगा, इसलिये इसका अपराध मुझे अपने शिर ले लेना चाहिए, सच्चे मित्र का यही तो कर्त्तव्य है। अध्यापक के प्रश्न के उत्तर में वह उठ खड़ा हुआ, उसने गम्भीर स्वर में कहा- हाँ, मैंने दर्पण तोड़ा है। उत्तर का अन्तिम शब्द पूरा भी न हो पाया था, कि बेंतों की सड़ा सड़ मार उसके ऊपर पड़ने लगी कई जगह से चमड़ी छील गई, बेंतों के नीले-नीले निशान उठ आये। देखने वाले सिहर रहे थे, पर विजय दृढ़ता और सन्तोष की भावना आँखों में भरे हुए वेक अपने स्थान पर अविचल खड़ा हुआ था।

स्कूल की छुट्टी हुई। वेक के अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी, पर वह उल्लसित हृदय के साथ बाहर निकला। साथी उसे घेरे हुए खड़े थे, मानों उसे सच्ची मित्रता की विजय बधाई दे रहे हों। निकोलस पर घड़ों पानी पड़ रहा था। उसकी आँखों में से आँसुओं की धारा बह रही थी, रुंधे कंठ से वेक को सम्बोधन करते हुए उसने कहा-’मित्र, तुम्हारे त्याग ने मेरे अंधेरे हृदय में एक नवीन ज्योति उत्पन्न कर दी है, तुम्हारे इस ऋण से जन्म भर ऋणी रहूँगा’।

समय बीतने में कुछ देर थोड़े ही लगती है एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, कम से कम पैंतीस वर्ष बीत गये, वेक और निकोलस एक दूसरे से बहुत दूर पड़ गये। वे एक दूसरे को भूल भी चुके थे। निकोलस जज हो गया था और वेक फौज कप्तान था। इंग्लैण्ड के शासक से असंतुष्ट होकर प्रजा ने गदर कर दिया। अन्त में गदर सफल हुआ, राजा के सहायकों को पकड़ कर एकजेस्टर की जेल में ठूँस दिया गया। इन बन्दियों का मुकदमा निकोलस की अदालत में हो रहा था। विद्रोहियों को आशा थी कि अदालत इन समस्त बन्दियों को प्राण दंड की सजा देगी। अदालत में बन्दी उपस्थित किये जाने लगे निकोलस सब को फाँसी की सजा दे रहा था।

सदा की भाँति उस दिन भी अदालत लगी हुई थी। सबसे पहले एक फौजी कप्तान पेश किया गया। उसका नाम था- वेक, इस शब्द के साथ निकोलस के अन्तर में पड़ी हुई अतीत की एक स्मृति हो गई। उसने बड़े ध्यान से बन्दी के चेहरे को घूर-घूर कर देखा। अरे, यह तो वही उसका बचपन का साथी वेक था। निकोलस की आँखों के आगे स्कूल, दर्पण, अध्यापक, बेंत और अपना वचन, चित्र की तरह नाचने लगे पर वह कर्त्तव्य के लिए विवश था।

आज केवल इस एक बन्दी को मृत्यु की सजा सुना कर ही अदालत उठ गई। जज ने हुक्म दिया कि अब एक सप्ताह तक अदालत की छुट्टी रहेगी और जब तक अदालत न खुले इस कप्तान को फाँसी पर न चढ़ाया जाय। इस विचित्र आशा का अर्थ कोई कुछ न समझ सका। लोग तरह-तरह की अटकल लगा रहे थे।

निकोलस एक तेज घोड़ा लेकर लन्दन के लिए दौड़ा। राजधानी वहाँ से बहुत दूर थी। दो-तीन दिन रात की तेज यात्रा करता हुआ न्यायाधीश लंदन पहुँचा। उसके सभी कपड़े बर्फ से भीगे हुए थे और वेत की तरह जाड़े से काँप रहा था। विद्रोही शासक त्रुग्य वेल ने न्यायाधीश निकोलस को इस रूप में खड़े देखकर आश्चर्य से कहा- निकोलस तुम, यहाँ, इस प्रकार।

निकोलस ने कहा- मि. त्रुग्य वेल, मैंने आपका विद्रोह सफल कराने में सहायता दी है, आज मुझे आपकी सहायता की जरूरत है और इसीलिए आपके पास दौड़ा आया हूँ। वेक मेरा मित्र है, उसका बहुत बड़ा ऋण मेरे ऊपर है, आज मैं उसके प्राणों की भिक्षा माँगने आप से आया हूँ।

त्रुग्य वेल बड़ा कठोर और राजा पक्ष के लोगों के लिए तनिक भी दया न रखने वाला शासक था पर जब उसने इन दोनों के बचपन की मित्रता का सारा हाल सुना और वेक के हृदय की महानता का परिचय पाया तो उसकी आँखों में भी आँसू छलक आये। उसने वेक का मृत्यु दंड माफ करने का क्षमा पत्र लिख कर निकोलस को दे दिया और कहा-निकोलस आखिर मैं भी तो मनुष्य ही हूँ।

निकोलस संतोष की साँस लेता हुआ एकजेस्टर लौटा। वह सीधा जेलखाने पहुँचा और काल कोठरी में वेक को ढूँढ़कर क्षमा पत्र देते हुए उसे अपनी भुजाओं में कस लिया और रुंधे हुए कंठ से कहा-मुझे पहिचानते हो वेक।

वेक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। न्यायाधीश, यहाँ, क्षमा पत्र लेकर, इतनी कृपा क्यों?

निकोलस ने कहा वेक, मैं तुम्हारा बचपन का साथी निकोलस हूँ। आज तुम्हारा ऋण चुका रहा हूँ।

दोनों मित्र एक दूसरे को पहचान कर भुजा पसार कर मिले। दोनों की आँखों से आँसू झर रहे थे। कंठ रुंधे थे। इस मौन मिलन में सच्ची मित्रता का प्रवाह बह रहा था और मानवता की अन्तरात्मा अदृश्य लोक से उन पर पुष्प वर्षा कर रही थी।


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