(श्री रामकृष्ण जी बुन्देला, लखनऊ)
कहते हैं कि किसी नगर में एक बड़ा धनवान सेठ रहता था। कर्म फल से उसकी आँखें चली गईं। बेचारा अन्धा सेठ धन धान्य रहते हुए भी दुख के दिन काटने लगा।
एक चालाक व्यक्ति सेठ के पास गया और बड़ी मीठी-मीठी बातें करके यह प्रस्ताव रखा कि मुझे प्रबंध का भार सौंपा जाय तो बड़ी ईमानदारी से सब कारोबार संभाल दूँगा और सब प्रकार के सुख साधन उपस्थित करता रहूँगा। सेठ इसके लिए तैयार हो गया चालाक व्यक्ति को मैनेजर बना दिया गया।
मैनेजर छिप कर बात करने लगा। धीरे-धीरे घर की सारी धन दौलत उसने खींच लीं। झूठे खर्च बता कर अपना घर भरने लगा। एक दिन उसने सोचा कि यदि यह सेठ मर जाय तो रही बची सम्पत्ति भी मेरे हाथ लग सकती है। उसने जहरीला साँप दूध में पका कर सेठ को पिला कर मार डालने का निश्चय किया।
दूसरे दिन कढ़ाई में दूध के साथ साँप पकाया जाने लगा। जाड़े के दिन थे आग तापने की इच्छा से सेठ भी चूल्हे के पास आ बैठे। ईश्वर की कृपा ऐसी हुई कि साँप के जहर की भाप उड़ कर आँख में लगी, तो उससे अन्धी आँखें अच्छी हो गईं, सेठ को बिलकुल साफ दिखाई देने लगा।
कढ़ाई में उबलता हुआ जहरीला साँप देखकर मैनेजर की दुष्टता सेठ की समझ में आ गई। घर में देखा तो सब माल खजाना चौपट पड़ा था, प्रबंधक की धूर्तता स्पष्ट रूप से प्रगट हो रही थी। सेठ ने मैनेजर को राज दरबार में पेश कर दिया जहाँ उसे भारी दंड मिला।
कथा में कितनी सचाई है यह मुझे मालूम नहीं, पर इतना मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि इसमें जो शिक्षा है वह पूर्णतः सत्य है। जो दूसरों के साथ बुराई करता है वह दुर्गति को प्राप्त होता है और जिसके साथ बुराई की जाती है उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता वरन् उल्टा अधिक फलता फूलता है।