भगवान का निवास

August 1943

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(ले.- जनार्दन पाण्डेय शास्त्री)

भगवान रामचन्द्र ने वनवास के समय महर्षि बाल्मीक के आश्रम में जाकर पूछा-

अस जिय यानि कहिय सोइ ठाऊ।

सिय सौमित्र सहित जहाँ जाऊं॥

तहं रचि रुचिर पूर्ण तृण शाला।

वास करो कछु काल कृपाला॥

महर्षि हंसकर बोले- हे चराचर जग के निर्माता राम, मैं धन्य भाग्य हूँ, जो मन वाणी से अगम्य स्वरूप वाले मुझसे अपना निवास पूछते हैं, आप जगत के निवास हैं और जगत आपका। वह स्थान ही नहीं जहाँ आप न हो फिर भी मैं कुछ स्थान बताता हूँ-

हे विधि, हरि हर नर्तक, जिन पुरुषों के श्रवण समुद्र आपकी अगाध कथा सरिताओं के द्वारा निरन्तर भरने पर भी पूर्ण नहीं होते अथवा जो अन्य जलों की उपेक्षा कर आपके स्वरूप रूपी स्वाति बूंद की ही आकाँक्षा करते हैं। ऐसे नर श्रेष्ठों के हृदय ही आपके योग्य निवास हैं।

हे प्रणत पाल! जिनकी जिह्वा हंसिनी आपके यश मानस गुण मुक्ताओं का चयन करती है, जिनकी नासा आपके प्रसाद-सौरभ में ही रत रहती है ऐसे पुरुषों का हृदय ही आपके योग्य निवास है।

हे भव भय भंजन! जिनका मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखते ही विनम्र हो जाता है, जिनके हाथ नित्य आपकी पूजा करते हैं, चरण आपके तीर्थस्थानों का पर्यटन करते हैं, जिन्हें नित्य आपका ही भरोसा है, जो सर्वदा आपके मंत्र का जाप करते हैं, जिनका परिवार आपके निरनतर अर्चन में रत है, उनका पवित्र हृदय ही आपके योग्य निवास है।

हे जन सुखदायक, जो विश्व कल्याण की कामना से आपके यज्ञ, व्रत, तप, उपासना, दान करते हैं और सब सेवाओं का एक मात्र फल ‘आपके चरणों में प्रेम’ मात्र चाहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, कपट, दम्भ जिन्हें छू तक नहीं गया। जो सबके प्रिय और हितकारी है, दुःख सुख जिन्हें समान प्राप्त होता है, जो सर्वदा अपने को आपकी शरण मानते हैं, ऐसे नर श्रेष्ठों का हृदय ही आपके योग्य निवास है।

हे पूर्ण ब्रह्म स्वरूप जिनके लिये परस्त्री माता परधन विषतुल्य है, जो दूसरों की संपत्ति पर हर्ष और विपत्ति पर दुख प्रकट करते हैं, जो दूसरों के अवगुणों पर दृष्टि न देकर सद्गुण ग्रहण करते हैं, नीति प्रदर्शित मार्ग ही जिनका मार्ग है, जिन्होंने आपके निमित्त धन संपत्ति जाति पाँति मान−प्रतिष्ठा सब कुछ त्याग कर दिया है, जिन्हें स्वर्ग नरक एक से प्रतीत होते हैं, मन वचन कर्म से जो आपके चरणों में स्नेह किये बैठे हैं ऐसे पुरुषों के हृदय ही आपके लिये उत्तम निवास है।


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