डायरी के कुछ पन्ने

August 1943

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(लेखक- डाँ- हरीलाल गुप्त, बेगूसराय)

जो भगवान के भरोसे अपनी जीवन-नौका को संसार सागर में छोड़ देता है आँधी पानी व तूफान की परवाह नहीं करता। वह नहीं सोचता कि मेरी नाव पार लगेगी क्योंकि वह जानता है कि नाविक होशियार है और वह चतुरता से नाव को खेकर गन्तव्य स्थान पर पहुँचा ही देगा। विश्वास एक बड़ी चीज है।

केवल ढोल देखने से यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें से ठीक आवाज निकलेगी ही। संभव है उसका चमड़ा गला या फटा हो। इसी प्रकार बड़ी दाढ़ी बाल टीका और चन्दन तथा माला देख कर ही अनुमान कर बैठना कि वह भला होगा ही अनुचित है। सोने और पीतल की परख तो कसौटी पर कसने से ही हो सकती है।

चकोर तो स्वाति की बूँद ही पीकर प्यास बुझाता है। वह प्यासे मर जाये पर दूसरा जल हरगिज नहीं पीता। सत्पुरुषों की टेक भी ऐसी ही होती है। चाहे प्राण भले ही चला जाये पर वह सत्य से नहीं डिगते। इसी में बड़प्पन और आनन्द का स्रोत छिपा हुआ है। दुनिया उसी को चाहती है जो अपने धर्म के लिये अपने को इटों में चुनवा देता है।

जो प्रेम के दीवाने होते हैं उन्हें सदा और सर्वदा हरा ही हरा सूझता है। उन्हें आठों याम अपने प्यारे की ही यदि बनी रहती है और वही उस रस में सैराल हाथी की तरह झूमते रहते हैं। लोग उन्हें पागल कहते हैं पर उसकी निगाह में तो ऐसे कहने वाले ही पागल हैं क्योंकि उनका रास्ता गलत है। वे साँसारिक दल-दल में फंसे हैं और अपने मालिक को भूल बैठे हैं।


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