मनुष्यता की उपासना

August 1943

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(श्री रमेश जी खागा)

मनुष्य अपनी पुनीत वास्तविकता-मनुष्यता-को छोड़ कर पाशविकता की बर्बर उपासना करने लगता है। सच्चाई, ईमानदारी, भलाई और भ्रातृभाव के स्थान पर झूठा प्रचार बेईमानी, धोखाधड़ी, शोषण, दमन और अहमन्यता को प्रधानता दी जाने लगी है। जब से मानव जाति ने असत्य के दुर्भाग्य पूर्ण पथ पर कदम बढ़ाना आरंभ किया है, उसी दिन से अशान्ति और कलह के बीजाँकुर बढ़ने शुरू हो गये हैं। कई शताब्दियों से संगठित और व्यापक अनीति को दौर-दौरा रहा है। उसके कडुए फल आज भयंकर परिणाम उपस्थित कर रहे हैं। धन जन का अपरमित संहार हो रहा है, हर एक मनुष्य अपने को आपत्ति और कठिनाई में फंसा हुआ अनुभव कर रहा है।

क्या यह दुखदाई परिस्थिति शीघ्र समाप्त हो जायेगी? क्या निकट भविष्य में शाँतिदायक घड़ियाँ आ रही हैं? मेरा विचार है कि अभी इस में बहुत देर है। कारण यह है कि अभी कोई ऐसे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि मनुष्य जाति अपनी भूल महसूस कर के सुधार या पश्चाताप के लिए तैयार है। घात प्रतिघात, दाव पेंच, शोषण, अन्याय का पूर्व प्रवाह यथावत जारी है उस में कुछ भी अन्तर नहीं आया है। न तो व्यक्तिगत जीवन में सुधार की तीव्र उत्कंठा दिखाई पड़ती है और न सामूहिक जीवन में संगठित संस्थाओं एवं सरकारों में उसके कुछ चिन्ह प्रकट हो रहे हैं।

विश्व शान्ति शस्त्रास्त्र की विजय पर निर्भर नहीं है और संधियों समझौता से काम चल सकता है तत्कालीन शाँति का कोई उपाय ढूँढ़ लेने पर भी अन्तिम ठोस परिणाम की तब तक आशा नहीं की जा सकती जब तक कि मानवीय दृष्टिकोण से आमूल परिवर्तन न हो। सदाचार समानता और सद् व्यवहार के बिना संसार में स्थायी रूप से शान्ति नहीं हो सकती, यदि आये दिन सामने आने वाली दैविक, दैहिक, भौतिक विपत्तियों से बचना है तो एक ही उपाय है- ‘मनुष्यता की उपासना’ बिना ईमानदारी को अपनाये मानवजाति का कल्याण नहीं हो सकता।


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