(श्री मैथिलीशरण गुप्त)
इस शरीर की सकल शिरायें, हों तेरी तंत्री के तार।
आघातों की क्या चिन्ता है, उठने दे ऊंची झंकार।
नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे, सब सुर हों सजीव साकार।
देश देश में, काल काल में, उठे नभ तक गहरी गुँजार।
कर प्रहार, हाँ कर प्रहार तू, मार नहीं यह तो है प्यार।
प्यारे और कहूँ क्या तुझसे, प्रस्तुत हूँ, मैं हूँ तैयार।
मेरे तार तार से तेरी, तान तान का हो बिस्तर।
अपनी अंगुली के धक्के से खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।
ताल ताल पर भाल झुकाकर, मोहित हों सब बारंबार।
लय बंध जाय और क्रम क्रम से, सम में समा जाय संसार।