कर्त्तव्य की जिम्मेदारी

April 1943

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(ले.श्री प्रकाशजी एम. एल. ए.)

प्रकृति का वह अनिवार्य नियम है, कि जिसको आप जैसा समझते हैं कि वह आपको वैसा ही समझता है, भले ही आप उसे न जानते हों या आपको जानकर आश्चर्य और क्रोध आवे। जिसको आप छोटा समझते हैं, वह आपको वैसा ही समझता है। नागरिक कर्तव्यों और अधिकारों का ज्ञान अस्पृश्यता रूपी कलंक हम में से निकाल देना और सच्चा भ्रातृ-भाव हमारे बीच में फैलावेगा, वह हमको बतलायेगा कि जो बात अपने को बुरी लगती है, वही बात दूसरे को बुरी लगती है। जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों से करें, सब चीजें चाहती हैं कि हमारे साथ सद्व्यवहार किया जाय, चाहे वे जड़ हों या चेतन। दुर्व्यवहार करने पर सभी वस्तुएं अपना बदला लेंगी। यदि भाई, नौकर, पड़ौसी, आदि चेतन जीवों से आप दुर्व्यवहार करते हैं तो अपना बदला लेते ही हैं। अचेत वस्तुएं भी ऐसा ही करती हैं। जूते के साथ दुर्व्यवहार कीजिएगा, उसे साफ नहीं रखिएगा तो वह काठ लेगा। छाते की फिक्र न कीजिएगा, उससे लापरवाही से पेश आइये, तो समय पर आप उसकी कमानी टूटी और कपड़ा कटा अर्थात् उसे बेकार पाइयेगा। यदि सुई की फिक्र न रखिएगा, तो किसी वक्त वह आपके शरीर में चुभ कर अपने अस्तित्व का माण आपको देगी। कार्यकुशल पुरुष सबके साथ सदा अच्छा और उचित व्यवहार करता है। इस कारण वह अपनी सब वस्तुएं, सब समय ठीक प्रकार से ठीक स्थान पर पाता है और सब चीजें उसकी सेवा करती हैं। उसका घर गन्दा नहीं रहता। उसके कपड़े मैले नहीं रहते। वह सदा चिड़चिड़ाया हुआ, घबराया हुआ, दूसरों पर अपना दोष लगाता हुआ, परेशान नहीं पाया जाता। उसका शरीर, उसकी आत्मा, उसका मस्तिष्क, सब स्वास्थ्य, स्थिर और प्रसन्न रहते हैं।

अपने नागरिक कर्तव्यों को न पालन कर हम देश की उन्नति में बाधा डाल रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे आपस के प्रतिदिन के सम्बन्ध पर भी पड़ा है। जब हम मोची, दर्जी, धोबी आदि को कोई काम देते हैं तो हमें यह विश्वास नहीं रहता कि हम समय से काम कर देगा, न उसे विश्वास रहता है कि इस समय पर उसे दाम देंगे। इसी कारण परस्पर तकाजे पर तकाजा करते रहना पड़ता है। ऐसी दशा में समाज कैसे ठीक-ठीक चल सकता है? हालत यहाँ तक पहुँची है, कि यदि आप किसी को भोजन का निमन्त्रण दें और उन्होंने उसे स्वीकार भी कर लिया हो तो न आपको यह विश्वास रहता है कि वे आ जावेंगे तो भोजन मिल भी जायगा। काशी में यह कायदा है कि शादी विवाह के भोज की याद निमन्त्रित सज्जनों को लोग आखिर तक बारबार स्वयं जाकर या दूसरों को भेज कर दिलाया करते हैं और मेरा खुद अनुभव है कि गाँव, देहात में निमन्त्रण स्वीकार करने के बाद जब समय से पहुँच गया हूँ तब वहाँ खाना पकाना शुरू किया गया है। मेजबानों को आखिर तक शंका रही कि वह आयेगा या नहीं। जब समाज की यह दशा है, जब किसी भी काम के लिये हम किसी दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते-तब क्या समाज का संगठन हो सकता है ? क्या समाज की प्रगति सम्भव है?

देश की उन्नति इने गिने बहुत थोड़े लोगों पर निर्भर नहीं रह सकती। देश की उन्नति, देश की प्रगति, देश का अभ्युदय, देश की स्वतन्त्रता, साधारण से साधारण व्यक्तियों के अपने कर्तव्यों और अधिकारों की जिम्मेदारी ठीक तरह समझने पर ही निर्भर है।

-ग्रहस्थ गीता,


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