(स्व. श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर)
मनुष्य समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ तभी हुआ, जब उसने सहयोग के नियम को स्वयं खोज निकाला। इस नियम से मनुष्य को एक साथ मिलकर आगे बढ़ने में बड़ी सहायता मिली। उसे फौरन ही मालूम हो गया कि एक साथ मिल कर उन्नति करने का नियम कृत्रिम नहीं, बल्कि स्वाभाविक है। अब तक सहयोग का यह विचार अलग अलग जातियों में उन्नति को प्राप्त हुआ है। इस सहयोग की बदौलत उन जातियों में शान्ति स्थापित रही है और अनेक प्रकार की बातें पैदा हुई हैं। इस संसार में कोई भी जाति दूसरी जातियों से अलग रह कर अपनी उन्नति नहीं कर सकती। या तो संसार की सब जातियाँ एक साथ जावेंगी। या एक साथ नाश को प्राप्त हो जावेंगी।
इस सत्य सिद्धाँत को संसार के सब बड़े बड़े लोगों ने स्वीकार किया है। उन्होंने जो कुछ उपदेश दिया है, उससे यही ध्वनि निकलती है, कि संसार की जातियाँ एक दूसरे से अलग होकर न रहें। इसीलिये हम देखते हैं, कि बुद्ध का धर्म केवल हिन्दुस्तान की सीमा के अन्दर न था। ईसामसीह का धर्म भी जेरुसलम की सीमा को पार कर गया था। क्या संसार के इतिहास के इस नाजुक जमाने में हिन्दुस्तान अपनी सीमाओं के ऊपर नहीं आ सकता? और एक बड़ा आदर्श संसार के सामने नहीं रख सकता? जिसमें कि भिन्न-भिन्न जातियों के बीच सहयोग और शान्ति का प्रचार हो? कमजोर विश्वास के आदमी शायद यह कहेंगे, कि जब तक हिन्दुस्तान मजबूत और दौलतमन्द न होगा, तब तक वह संसार की भलाई के लिये अपनी आवाज नहीं उठा सकता। लेकिन मैं इस पर विश्वास नहीं करता। यह समझना कि मनुष्य का बड़प्पन इस बात में है कि “उसकी साँसारिक शक्ति खूब बढ़ी चढ़ी हो और उसके पास खूब धन दौलत हो।” उसका अपमान करना है। जो लोग साँसारिक शक्ति से हीन और निर्बल हैं, उन्हीं में यह शक्ति है कि वे संसार को उस मिथ्या विश्वास से बचावे। यद्यपि भारतवर्ष गरीब और गिरी दशा में है तथापि वह संसार को विपत्ति से बचाने के योग्य हो सकता है।
सच्ची स्वतन्त्रता इस बात में नहीं है, कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए जो चाहे सो करे। सच्ची स्वतन्त्रता वही है जिसमें संसार भर का स्वार्थ सिद्ध हो। इसी तरह से जातियों की सच्ची स्वतन्त्रता इसमें है, कि वे संसार भर के स्वार्थ का ख्याल रखें। स्वतन्त्रता का जो विचार आजकल की सभ्यता में फैला हुआ है, वह अधूरा और कृत्रिम है। भारतवर्ष में सच्चा स्वराज्य तभी होगा, जब इसकी शक्तियाँ स्वतन्त्रता के इस कच्चे और वह आदर्श के विरुद्ध लगाई जायगी।
प्रेम की किरणों में वह स्वतन्त्रता और शक्ति है, जी सच्चे ज्ञान रूपी फल को पकाती हैं। पर जोश की आग हमारे लिये बेड़ियाँ ही बन सकती है। जो मनुष्य आत्मिक शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं वह हमेशा पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये उद्योग करता है। हमारी स्वतन्त्रता की आवाज इसी मोक्ष के लिये होनी चाहिए। जातीय आवश्यकताओं के नाम पर इस स्वतन्त्रता के रास्ते में रुकावटें डालना स्वयं अपनी जाति के लिए एक कैद खाना बनाना है क्योंकि जातियों के लिये मुक्ति का सच्चा रास्ता इसी में है कि मनुष्य मात्र एक ही उद्देश्य की ओर-सत्य की ओर बढ़ते जाय।