क्या बताऊं कौन से संसार से मैं आ रहा हूँ।
जानता कुछ भी नहीं किस देश को फिर जा रहा हूँ॥
देखकर मुझ को अकेला वह अमा की रात आई।
दामिनी-कादम्बिनी के साथ वह बरसात आई॥
मधुर रस में डूब कर जब खिल गये ये कुमुद मेरे।
थिरकने-से लग गये बन बाग में के की घनेरे॥
पी रहे हैं प्राण कब से माधुरी की मधुर ज्वाला।
खेलता है वेदना से प्रेम यह कैसा निराला॥
सैर को निकला मुसाफिर प्राण का पाथेय लेकर।
बन गया बन्दी पिपासित नव सुधा का मूल्य देकर॥
प्रकृति का प्यासा पथिक बाजार में किस भाँति आया।
हास्य-क्रन्दन का गरल पीयूष का व्यापार पाया॥
नियति-परचालित तरी मँझघार में सब खेलने को।
आ गई है आज झंझाबात से हा खेलने को॥
आँख वाले पढ़ सकेंगे यह अमर इतिहास मेरा।
उधर है सन्ध्या खड़ी तो इधर है हंसता सबेरा॥
(श्री राम अयोध्या सिंह जी)