देवताओं की वाणी

April 1943

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(संकलनकर्ता श्री धर्मपालसिंह जी, रुड़की)

-मूर्ख वास्तविकता को भूल जाता है और अपने नियत किए कार्य को छोड़ कर जीवन के मूल महत्त्व को भूलकर मालिकी गाठ ने लगता है। स्त्री का पति बनते हुए पुत्र का पिता बनते हुए नौकर का स्वामी बनते हुए, मनुष्य घमण्ड में ऐंठा जाता है। समझता है मानो मैं ही उसका बनाने वाला ब्रह्मा हूँ, पालन करने वाला विष्णु हूँ और नाश करने वाला शिव हूँ, पर उसकी मालिकी बात बात में धूल चाटती है।

-विवेक बुद्धि कहती है। नाशवान शरीर की क्षणिक लालसाओं को तृप्त करने की अपेक्षा स्थायी, अनन्त सच्चे आत्म सुख को प्राप्त करो। शरीर भले ही कष्ट में हो परन्तु सद्वृत्तियों द्वारा प्राप्त होने वाले सच्चे सुख को हाथ से न जाने दो ठीकरी को छोड़कर अशर्फी ग्रहण करो बहुत के लिए थोड़े का त्याग करो।

-अकसर धार्मिक विद्वान् भोगों को बुरा, घृणित और पापपूर्ण बताया करते हैं असल में उनके कथन का मर्म यह है कि इंद्रिय भोगों का दुरुपयोग करना बुरा है मध्यम मार्ग का अवलम्बन करना चाहिये अति और अभाव दोनों बुरे हैं।

-अपने लिए अपेक्षाकृत कम चाहना और दूसरों की सुविधा का ध्यान रखना यह मनोवृत्ति धर्म की आधार शिला है।

-हो सकता है कि अक्षर ज्ञान की दृष्टि से आप पीछे हों, परन्तु सद्बुद्धि तो परमेश्वर ने सबको दी है वह आपके पास भी कम नहीं है दीनता की भावना को आश्रय देकर आत्म तिरस्कार मत कीजिए।


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