(योगी अरविन्द घोष)
हमारी भुजाओं में बल नहीं, हमारे पास युद्ध की सामग्री नहीं, शिक्षा नहीं; फिर हम किसकी आशा करें ? कहाँ वह बल है जिसके भरोसे हम लोग प्रबल शिक्षित यूरोपीय जाति को असाध्य को साधने के प्रयासी होंगे? पण्डित और विज्ञ पुरुष कहते हैं कि यह बालक की महान् दुराशा और ऊंचे आदर्श के मद में उन्मत्त विचारहीन लोगों का शून्य स्वप्न है। स्वाधीनता प्राप्त करने का एक मात्र मार्ग युद्ध ही है। पर उसमें हम लोग असमर्थ हैं, किन्तु क्या यह सत्य बात है कि केवल बाहुबल ही शक्ति का आधार है, अथवा शक्ति और भी किसी गूढ़ गंभीर वस्तु में है।
यह बात सब लोग स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं कि केवल बाहुबल से कोई भी बड़ा काम संशोधित होना असंभव है। यदि दो परस्पर विरोधी समान बलशाली शक्तियों का सामना हो, तो जिसका नैतिक और मानसिक बल अधिक होगा, जिसका ऐक्य, साहस, अध्यवसाय, उत्साह, दृढ़ प्रतिज्ञा और स्वार्थ त्याग उत्कृष्ट होगा तथा जिसकी विद्या, बुद्धि, चतुरता, तीक्ष्ण दृष्टि, दूरदर्शिता और उपाय निकालने वाली शक्ति विकसित होगी, निश्चय उसी की जय होगी। इस तरह बाहुबल, संख्या, युद्ध सामग्री इन तीनों से हीन समाज भी नैतिक और मानसिक बल के उत्कर्ष से प्रबल से प्रबल प्रतिद्वन्दी को हरा सकता है। यह बात मनगढ़ंत नहीं है, इसका प्रमाण इतिहास के पन्ने पन्ने में लिखा है। अब इस पर आप यह कह सकते हैं कि बाहुबल की अपेक्षा नैतिक और मानसिक बल का गुरुत्व तो है, पर बाहुबल के बिना नैतिक बल और मानसिक बल की रक्षा कौन करेगा? यह तर्क बिलकुल ठीक है, किन्तु यह भी देखा गया है कि दो चिन्ता प्रणाली, दो सम्प्रदाय और परस्पर विरोधी दो दो सभ्यताओं का संघर्ष हुआ है तो उसमें उस दल की तो हार हुई है। जिसमें बाहुबल, राजशक्ति, युद्ध सामग्री आदि सब साधन पूर्ण यात्रा में मौजूद थे तथा उस दल की जीत हुई है जिसमें ये सब साधन आरंभ में नहीं थे। यह उलटा फल क्यों हुआ? “यतोधर्मस्ततोजयः” अर्थात् जहाँ धर्म है वहाँ जय है। किन्तु धर्म को पहचानने की शक्ति होनी चाहिए। अधर्म का अभ्युत्थान और धर्म का पतन स्थायी नहीं हो सकता।
बिना कारण के कार्य नहीं होता। जय का कारण शक्ति है। किस शक्ति में निर्बल पक्ष वालों की हार होती है, यह बात विचारणीय है। ऐतिहासिक दृष्टान्तों की परीक्षा करने पर हम यह बात जान सकेंगे कि आध्यात्मिक शक्ति के बल से वह अनहोनी बात हो सकती है, आध्यात्मिक शक्ति ही बाहुबल को कुचल कर मानव जाति को बतलाती है कि यह जगत भगवान का राज्य है न कि अन्य स्थूल प्रकृति का लीला क्षेत्र। पवित्र आत्मशक्ति का प्रसव करती है अर्थात् पवित्र आत्मा से शक्ति पैदा होती है। प्रकृति का संचालन परमात्म शक्ति (परमात्मा) का पैदा किया हुआ है। जिसका आध्यात्मिक बल बढ़ जाता है उसमें जीतने की सामग्री स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है, विघ्न बाधाएं भी अपने आप ही हट जाती हैं और उपयुक्त समय आ विराजता है। कार्य करने की क्षमता भी स्वयं ही उत्पन्न होकर तेजस्विता हो जाती है। यूरोप इसी (आध्यात्मिक शक्ति) को पैदा करने के लिए प्रयत्न शील है। फिर भी उसे अभी इसमें पूरा विश्वास नहीं है और न उसके भरोसे पर काम करने की उसकी प्रवृत्ति ही है, किन्तु भारत की शिक्षा सभ्यता गौरव, बल और महत्व Soul Farce के मूल में आध्यात्मिक शक्ति है। जब जब लोगों को भारतीय महाजाति का विनाश काल निकट आया जान पड़ा है तब तब आध्यात्मिक बल ने गुप्त रीति से उत्पन्न होकर उप्र स्रोत में प्रवाहित हो मृत्यु के निकट पहुँचे हुए भारतीय को पुनर्जीवित किया है और सारी उपयोगी शक्तियों को भी पैदा किया है। इस समय भी उस आध्यात्मिक बल का प्रसबन बन्द नहीं हो गया है। आज भी उस अद्भुत मृत्युँजय शक्ति की क्रीड़ा हो रही है।
किन्तु स्थूल जगत की सारी शक्तियों का विकास समय के अनुसार होता है, अवस्था के उपयुक्त ही समुद्र में ज्वार और भाटे का न्यूनाधिक होता है। हम लोगों में यही हो रहा है। इस समय सम्पूर्ण भाटा है, ज्वार का समय आ रहा है महापुरुषों की तपस्या, स्वार्थ त्यागियों का कष्ट सहन, साहसी पुरुषों का आत्म समर्पण, योगियों की यौगिक शक्ति, ज्ञानियों का ज्ञान संचार और साधुओं की शुद्धता आदि आध्यात्मिक बल से उत्पन्न होती है। इधर कई वर्षों के कष्ट दुर्बलता और पराजय के फल से भारतवासी अपने में शक्ति को उत्पन्न करने की खोज करना सीख रहे हैं, किन्तु वह भाषण की उत्तेजना म्लेच्छों की दी हुई विद्या, सभा समिति की भाव संचारिणी शक्ति और समाचार पत्रों की क्षणस्थायी प्रेरणा से नहीं वरन् अपनी आत्मा की विशाल नीरवता में ईश्वर और जीव के संयोग से गंभीर अविचलित, अभ्रान्त, शुद्ध, दुःख सुख जयी, और पाप पुण्य वर्जित शक्ति से उत्पन्न है। वही महासृष्टि करणी, महा प्रलयंकारी, महा स्थिति शालिनी, ज्ञान दायिनी, महासरस्वती, ऐश्वर्य दायिनी, महालक्ष्मी, शक्तिदायिनी महा काली है। यही सहस्रों तेजों के संयोजन से एकीभूता चण्डी प्रकट होकर भारत का कल्याण तथा जगत का कल्याण करने में सफल होगी। भारत की स्वाधीनता तो केवल गौण-अप्रधान-उद्देश्य मात्र है। मुख्य उद्देश्य है-भारत की सभ्यता का, शक्ति दर्शन एवं संसार भर में उस सभ्यता के प्रचार और अधिकार का होना।
यदि हम आज पाश्चात्य साधनों के बल से, सभा समितियों के बल से, वक्तृता के जोर से, अथवा बाहुबल से, स्वाधीनता या स्वायत्त शासन प्राप्त कर लें तो वह मुख्य उद्देश्य कदापि सिद्ध नहीं हो सकता। भारतीय सभ्यता में आध्यात्मिक शक्ति है। उस आध्यात्मिक शक्ति से उत्पन्न किये हुए सूक्ष्म और स्थूल प्रयत्नों द्वारा स्वाधीनता प्राप्त करनी होगी। आज हमारी वह शक्ति अन्तर्मुखी हो रही है जिस समय वह शक्ति बहिर्मुखी होगी उस समय उसे कोई रोक ही नहीं सकेगा। तब वहीं त्रिलोक पावनी गंगा भारत को एवं समस्त भूमंडल को अपने अमृत स्पर्श से स्पर्श करती हुई नवीन युग स्थापित करेगी।