(ले-पं. रामदयालजी शर्मा, तिलहर)
अक्सर यह कहा जाता है कि-’माला जपने की क्या जरूरत है? मन से जप करना ही पर्याप्त है।’ यह ठीक है, कि जप का सीधा सम्बन्ध मन से ही है, यदि मन में जप की एकाग्र भावनाएं न हों तो केवल माला के मनके सरकाना कुछ अर्थ नहीं रखता। सिर खुजलाते रहना या ऐसा जप करते रहना, बराबर ही कहा जायगा।
लेकिन जो लोग सच्चे मन से जप करना चाहते हैं, उनके लिये माला एक उपयोगी और आवश्यक साधन है! घास खोदने वाला यदि चाहे तो उंगलियों से भी घास उखाड़ता रह सकता है, पर उसे अपना काम सुव्यवस्थित, जल्दी और सुविधापूर्वक करना है तो हंसिया या खुरपी की सहायता लेनी पड़ेगी। ठीक इसी प्रकार माला की जरूरत है। सब कोई जानते हैं कि चित्त का स्वभाव चंचल है स्वभावतः वह एक जगह पर नहीं टिकता। अभी यहाँ है तो अभी उड़कर कहीं दूसरी जगह चला जायगा। उसे एक जगह पर बराबर जोते रहने के लिये एक भौतिक प्रक्रिया की आवश्यकता है और वह प्रक्रिया माला के रूप में हम लोग प्रयोग करते हैं। शरीर की बाह्य क्रियाओं पर मन का कुछ न कुछ भाग अवश्य लगा रहता है। जैसे चाकू से कलम बनावे तो उसे मन किसी दूसरी कल्पना में जा सकता है, पर उसका अधिक भाग कलम बनाने की क्रिया में अवश्य उलझा रहेगा। इसी प्रकार केवल मन ही मन में जप करने पर चित्त दूसरी जगह उड़ जा सकता है। पर मुख से मन्त्र उच्चारण करने एवं हाथ से माला जपने की शक्ति न होने मन का कुछ न कुछ भाग भजन में जरूर उलझा रहेगा। पूर्ण अभ्यासियों को समाधि आनन्द लेते समय भले ही उसकी आवश्यकता न हो, परन्तु निश्चय ही आरम्भिक साधकों के लिये तो माला जपना आवश्यक है।
*समाप्त*