(वेदों का अमर सन्देश)
क्षिपो मृजन्ति। यजु.
पुरुषार्थी लोग ही पवित्र होते हैं और पवित्र करते हैं।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवाँसः यजु.
बलवान अवयवों द्वारा ईश्वर की उपासना करेंगे।
आ राष्ट्रे राजन्यः सूर इषव्यो अतिव्याधी महारथो जयताम्। यजु.
हमारे राष्ट्र में शुरलोक उत्तम प्रभावशाली वीर बने।
उग्राय तब से सुवृति प्रेरय- यजु.
श्रेष्ठ बल के लिए उत्तम भाषण और उत्तम कर्म करो।
आप्नुहि श्रेयाँ समति समं क्रम। अ. 1/11/2
अपने समान लोगों में आगे बढ़ और श्रेय को प्राप्त कर।
जाग वाँसः समिन्धते। यजु.
जागने वाले ही एक होकर प्रकाश करते हैं।
असश्चतः शत धारा अभिश्रियः यजु.
सतत प्रयत्न करने वाले को सैकड़ों प्रवाहों से यश प्राप्त होता है।
दृते दृंह मा, ज्योक्ते संदृशि जी व्यासम।
ज्योवते संदृशि जी व्यासम। यजु.
हे समर्थ परम दृढ़ परमेश्वर! मुझे दृढ़ बना दे। जिससे मैं तेरे संदर्शन में, तेरी ठीक दृष्टि में चिर काल तक जीता रहूँ।
अप्नस्वती मश्विना वाचमस्मे कृतं नी दस्ता वृषणा मनीषान। ऋग. 1/12-24
(अश्विना) हे दिव्य चिकित्सक (अस्त्रा) हमारी (वाचम) वाणी को (अप्नस्वतम) कर्म से युक्त (कृतम्) कर दो (दस्त्रा) हे पाप दूर करने वालो (वृषणा) सुख बरसाने वालो (नः) हमें (मनीषाम्) तीव्र बुद्धि (कृतम) प्रदान करो।
डत् तिष्ठ ब्रह्मणास्पते देवात यज्ञे न बोधय।
आयुः प्राणं प्रजाँ पशून् कीर्ति यजमानं च वर्धय।
अथर्व 1./63/1
(ब्राह्म पते) हे विशुद्ध ज्ञान के स्वामिन (उप तिष्ठ) उठ बैठो और हमारी सहायता के लिए हो जाओ (अज्ञेन) यज्ञमय परोपकारी जीवन द्वारा (देवान) विद्वानों को जगाओ। आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति और यज्ञ करने वाले लोगों को बढ़ाओ।
अनुहूतः पुनरेहि विद्वनुदश्नं पथः।
आरोहणामाकमणाँ जीवती जीवतोयतम॥
अथर्व 4/30/7
(अनुहूतः) मैं तुझे बुलाता हूँ (पुनः) फिर (आइहि) उठ कर आ। तू (पथः) जीवन मार्ग का (उद् अयनम्) चढ़ाई (आरोहणाम) ऊंचाई (उपक्रमणम) उपक्रमण कर तथा (जीवतः जीवतः) प्रत्येक जीवित प्राणी के (अयनम) जाति प्रकार को (विद्वन) जान।