पतित की आकाँक्षा

July 1942

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माँ, कैसे कह दूँ, मानव हूँ,

सुध-बुध अपनी खोई मैंने,

इन हाथों से ही लहरों में,

अपनी नाव डुबाई मैंने।

रहा किसी दिन मैं भी मानव,

अब हूँ पशुता से भी नीचे,

स्वत्वहीन हूँ, सह लेता हूँ,

सब सुख-दुख निज आँखें मींचे।

बोल रहा हूँ मैं डर कर,

बोलूँ यह अधिकार कहाँ है?

सुख-दुख कहना, रोना आफत,

यह मनुआ लाचार यहाँ है?

अब सपने से मेरे वे दिन,

अब अपना जीवन का वैभव

आज बंधा हूँ मैं कफनी में,

जिन्दा ही मैं आज बना शव।

जीते जी मारना यह कैसा माँ,

यह दुर्गति सह न सकूँगा,

मुझ में दो जीने की ताकत,

मैं यों मुर्दा रह न सकूँगा।

-श्री कमलेश्वरी प्रसाद नायक।


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