अन्याय का विरोध

July 1942

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(महात्मा गाँधी)

सत्य को स्वीकार करने वाला व्यक्ति किसी की भी न्याय विरुद्ध और अत्याचारी आज्ञा नहीं मान सकता। ऐसा सत्याग्रह केवल सरकार ही के साथ नहीं वरन् स्वजाति और देश बन्धुवों के साथ भी किया जा सकता है। और करना चाहिए। सरकार की ही तरह समाज भी अनेक अवसरों पर उल्टे और अनुचित मार्गों का अनुसरण कर बैठता है। उस समय उसके अन्याय का विरोध करना आवश्यक है। नियमभंग का कर्तव्य (Duty of Civil disobience) पुस्तक के लेखक थोरो ने इसी तरह स्वजाति के ही विरुद्ध सत्याग्रह किया था। वह अपनी जाति वालों के गुलामों का व्यापार करना अन्याय कार्य समझता था। इसलिए उनके उस काम का विरोध करना उसने अपना कर्तव्य समझा। मार्टिन लूथर अकेले ही सम्पूर्ण जाति के विरुद्ध खड़े होने में विचलित न हुए। यह उनके सत्याग्रह का ही फल है कि जर्मनी आज दिन स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहा है। गलेलियों ने स्वाजाति का विरोध किया था। उसके बन्धु जिस समय उसे मारने के लिए तैयार हुए उस समय भी उसने निर्भय होकर उनको जवाब दिया। उसने कहा मुझे मारो या छोड़ो पर पृथ्वी घूमती है और जरूर घूमती है। आज हम उसके वचनों का वेद वाक्य के समान आदर करते हैं। कोलम्बस को अपने साथी खलासियों के साथ सत्याग्रह करना पड़ा था। बेहद घबराये हुए खलासियों ने उससे कहा था कि तुम हमारी बात मानकर जहाज को घर की और लौटा लो, नहीं तो हम तुम्हें गोली मारकर खतम कर देते हैं।

क्योंकि आज अमेरिका मिलने की कोई आशा नहीं है। धीरे से कोलम्बस ने उत्तर दिया- कुछ परवाह नहीं, मैं निर्भय हूँ। अभी कुछ दिनों तक और प्रवास करना होगा। अन्त में अमेरिका मिला और कोलम्बस अमर हुआ।

उस समय अन्याय की बात कर्तव्य है। इस कर्तव्य को पालन के वचने का सत्व की रक्षा कर सकता है।


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