बन्दी की वेदना

July 1942

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खोलो, मेरे बन्धन खोलो!

हाय! मौन बन अब न सताओ, बोलो, मुझसे बोलो।

वह प्रभात की स्वर्णिम रेखा नभ में नक्षत्रों का लेखा

रजत रश्मियों को कब देखा

देखा था, युग से बीते हैं, यह आकुलता तोला-

अब तो मेरे बन्धन खोलो!

पत्थर की इन दीवालों में विजडित लोहे के तालों में

व्यथितों की आहों-नालों में-

पलता हूँ, है यही दया बस ‘सो लो चाहे रो लो’-

कब तक?................कोई बन्धन खोलो!

मैं जग देखूँ जिय हुलसाऊं तट पर सन्ध्या गीत सुनाऊं

तन से मुक्त पवन छू पाऊं

चार पलों के लिये मुक्ति दो, पी लूँगा विष घोलो-

सुन लो कोई बन्धन खोलो!

-श्री द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गण’


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