अहिंसा और हिंसा

July 1942

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अहिंसा को शास्त्रों में परम धर्म कहा गया है, क्योंकि यह मनुष्यता का प्रथम चिन्ह है। दूसरों को कष्ट, पीड़ा या दुःख देना निःसंदेह बुरी बात है, इस बुराई के करने पर हमें भयंकर पातक लगता है। और उस पातक के कारण नारकीय रारव यातनायें सहन करनी पड़ती हैं। बौद्ध और जैन धर्म तो अहिंसा को ही संपूर्ण धर्म मानते हैं। अन्य धर्मों में भी अहिंसा के लिए बहुत ऊँचा स्थान है।

ऐसे प्रधान धर्म का पालन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके तत्वज्ञान पर एक विवेचनात्मक दृष्टि डाली जाय। हमें जानना चाहिए कि हिंसा क्या है। और दूसरों को दुःख की व्याख्या क्या है। किसी को दुख न देने की मोटी कहावत तो इतनी स्थूल है कि उसका आचरण करने पर एक घंटे भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता और एक दिन भी ऐसी अहिंसा काम में आने लगे तो सृष्टि सर्वनाश ही समझना चाहिए। सिंह, व्याघ्र और सर्प, बिच्छुओं को दुख न देने की नीति ग्रहण की जाय तो सहस्रों निरपराध प्राणियों के प्राण संकट में पड़ते रहें। हत्यारे और डाकुओं को न सताया जाय, तो समाज की सुख, शान्ति ही चली जावें जुँए, चीलर, रक्तजुँए, खटमल आदि को पाल कर रखा जाय, तो चैन से बैठना मुश्किल हो जाय। मक्खी, मच्छर, पिस्सू, बीमारियों के कीड़े फसल के शत्रु कीड़े आदि को न सताया जाय तो जीवनयापन होना कठिन है। शरीर के हिलने जुलने साँस लेने पानी पीने भोजन करने में अनिवार्यतः हिंसा होती है। इससे चार भाई भी उपाय नहीं है।

मूढ़ता के कारण अज्ञानी व्यक्ति जिन कार्यों को अहिंसा माने लेते हैं। असल में वह एक भ्रम मात्र है। जीवित पदार्थों में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है कहा गया है कि जीवो जीवस्य भोजनम शाक अन्न दूध जल, वायु से जीवित प्राणियों को खाकर हम भी जीवित रहते है। ऐसी अनिवार्य हिंसा जो स्वाभाविक है,वह हिंसा नहीं कही जा सकती। अमुक शाक खाने में हिंसा हो जायगा या मुख पर पट्टी बाँधे बिना साँस लेने से हिंसा हो जायेगी। ऐसी सनक के लिए अपना समय और शक्ति बर्बाद करना व्यर्थ है क्योंकि यह अनिवार्य है। ढकोसले बनाने पर भी उसका बचाव नहीं हो सकता। मुँह पर पट्टी बाँध लेने से भी जीव पेट में पहुँचेगा, यह न पहुंचेंगे तो वह खुद ही मर जायगा।

बड़े बुद्धिमान, ज्ञानवान, शरीरधारी प्राणियों को दुख देने, दण्ड देने या मार डालने या हिंसा करने के समय यह विचारना आवश्यक है। कि यह दुख किस लिए दिया जा रहा है। सब प्रकार के दुख को पाप और सब प्रकार के सुख को पुण्य नहीं कहा जा सकता। गरीब भेड़ों के खून के प्यासे भेड़ियों को मार डालना न तो पाप है और न सर्प को दूध पिलाना पुण्य है। हिंसा अहिंसा की परिभाषा कष्ट या आराम के आधार पर करना एक बड़ा घातक भ्रम है। जिसके कारण केवल पाप का विकास और धर्म का नाश होता है।

एक आप्त वचन है कि- वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात्- विवेकपूर्वक की गई हिंसा हिंसा नहीं है। अविवेकपूर्वक दूसरों को जो कष्ट दिया गया है वह हिंसा है। जिह्वा की चटोरेपन के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है, अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों की दुख देना हिंसा है। किन्तु निस्वार्थ भाव से लोक कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय, तो वह हिंसा नहीं, वरन्, अहिंसा ही होगी। डॉक्टर निस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा करने के लिए फोड़े को चीरता है, एक न्यायमूर्ति जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू को फाँसी की सजा का हुक्म देता है, एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक आत्म कल्याण के लिए तपस्या करने के मार्ग पर प्रवृत्त करता है। मोटी दृष्टि से देखा जाय तो डॉक्टर का फोड़ा चीरना जज का फाँसी देना, गुरु का शिष्य को कष्ट में डालना, हिंसा और अधर्म जैसा प्रतीत होता है। पर असल में यह सच्ची अहिंसा है। गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला हरामखोरों का दान देन वाला दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक प्रतीत होता है। पर असल में वह घोर पातकी हिंसक और हत्यारा है। क्योंकि अपनी बुज़दिली और हीनता को अहिंसा की बेड़ी में छिपाता हुआ असल में वह पाजीपन की मदद करता है। एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राणघातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है। ऐसी अहिंसा को जड़बुद्धि के अज्ञानी ही अहिंसा कह सकते है असल में तो वह प्रथम श्रेणी की हिंसा है।

यह सोचना गलती है कि दुख देना हिंसा और आराम देना अहिंसा है। तत्वतः काम के परिणाम और करने वाले की नियत के अनुसार हिंसा अहिंसा का निर्णय होना चाहिये। तात्कालिक और क्षणिक दुख-सुख में दृष्टि को अटकाकर उससे उत्पन्न होने वाले परिणाम की ओर से आँखें बन्द कर लेना बुद्धिमानी न होगी। किये हुए कार्य के परिणाम का गंभीरतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के उपरान्त उसके उचित या अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए और उसी के आधार पर उस कार्य को हिंसा या अहिंसा ठहराना चाहिये।

विवेकपूर्वक पालन की जाने वाली अहिंसा में दंड देने की, शस्त्र प्रहार करने की युद्ध और संघर्ष करने की गुंजाइश है। एक विचारवान व्यक्ति नेक नीयती, परोपकार और धर्म भावना से अहिंसा धर्म के अनुसार दुष्ट को जान से भी मार सकता है और इसके लिए वह बिलकुल निष्पाप रहेगा। किन्तु एक कायर, बुज़दिल, अकर्मण्य और अशक्त व्यक्ति यदि अपना गलती को छिपाने के लिए कष्ट से डरकर अन्याय सहन करे तो वह अहिंसक कदापि नहीं होगा, बल्कि उसे सच्चे अर्थों में पातकी की और हिंसक कहा जायेगा। वास्तव में कायरता और हिंसा एक ही वस्तु के दो स्वरूप हैं। दोनों की जननी स्वार्थ बुद्धि है। वीरता और उदारता अहिंसा है। जो परमार्थ बुद्धि के कारण उत्पन्न होती है।

कथा-


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