दुष्टों से प्रेम, दुष्टता से युद्ध

July 1942

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एक तत्वज्ञानी का उपदेश है कि ‘दुष्टों पर दया करो, किन्तु दुष्टता से लड़ मरो। दुष्ट और दुष्टता का अन्तर किये बिना हम न्याय नहीं कर सकते। अक्सर यही होता है कि लोग दुष्टता और दुष्ट को एक ही वस्तु समझ लेते हैं। और एक ढेले से दोनों को शिकार बना देते है।

बीमार और बीमारी एक ही वस्तु नहीं है। जो डॉक्टर बीमारी के साथ बीमार को भी मार डालने का इलाज करता है। उसकी बुद्धि को क्या कहे? एक बन्दर अपने मालिक को बहुत प्यार करता था। जब मालिक सो जाता तो बन्दर पंखा किया करता ताकि मक्खियाँ उसे न सतावें। जब तक वह पंखा झलता रहता मक्खियाँ उड़ती रहती, जैसी ही वह पंखा बन्द करता, कि मक्खियाँ फिर मालिक के ऊपर आकर बैठ जाती। यह देख कर बन्दर को मक्खियों पर बड़ा क्रोध आया और उसने उनको सजा देने का निश्चय किया। वह दौड़ा हुआ गया और सामने की खूँटी पर टँगी हुई तलवार को उतार लाया। जैसे ही मक्खियाँ मालिक के मुँह पर बैठी, वैसे ही बन्दर ने खींच कर तलवार का एक हाथ मारा। मक्खियाँ तो उड़ गई, पर मालिक का मुँह बुरी तरह जख्मी हो गया। हम लोग दुष्टता को हटाने के लिए ऐसा ही उपाय करते हैं। जैसा बन्दर ने मक्खियों को हटाने कि लिए किया था।

आत्मा किसी की दुष्ट नहीं है, वह तो सत्य, शिव और सुन्दर है, सच्चिदानन्द स्वरूप है। दुष्टता तो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है। यह अज्ञान एक प्रकार की बीमारी ही होती है। अज्ञान रूपी बीमारी को मिटाने के लिए हर उपाय काम में लाना चाहिए। परन्तु किसी से व्यक्तिगत द्वेष न मानना चाहिए। व्यक्तिगत द्वेष भाव जब मन में घर कर लेता है। तो हमारी निरीक्षण बुद्धि कुँठित हो जाती है। वह नहीं पहचान सकती कि शत्रु में क्या बुराई और क्या अच्छाई है। पीला चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुएँ पीली दिखाई पड़ने लगती हैं। इसी प्रकार स्वार्थपूर्ण द्वेष जिस मनुष्य के लिए घर कर लेता है, उसके भले काम भी बुरे प्रतीत होते हैं। और अपनी आँखों के पीलिया रोग को न समझकर दूसरे के चेहरे पर जो पीलापन दिखाई पड़ता है। उसे पाण्डु रोग समझकर उनका इलाज करने लगता है। इस प्रकार अपनी मूर्खता का दंड दूसरों पर लादता है। अपनी बीमारी की दवा दूसरों को खिलाता है। जालिम और दुष्ट क्रोधी और परपीड़क इसी अज्ञान में ग्रसित होते हैं। उनके मन में स्वार्थ एवं द्वेष समाया हुआ होता है, फलस्वरूप उन्हें दूसरों में बुराइयाँ ही बुराइयाँ नजर आती हैं। सन्निपात का रोगी दुनिया को सन्निपात ग्रसित समझता है।

आप दुष्ट और दुष्टता के बीच अन्तर करना सीखिए। हर व्यक्ति को अपनी ही तरह पवित्र आत्मा समझिये और उससे आन्तरिक प्रेम कीजिये। कोई भी प्राणी नीच, पतित या पापी नहीं है। तत्वतः वह पवित्र ही है। भ्रम अज्ञान और बीमारी के कारण वह कुछ का कुछ समझने लगता है। इस बुद्धि भ्रम का ही इलाज करना है। बीमारी को मारना है और बीमार को बचाना है।

इसलिये दुष्ट और दुष्टता के बीच में फर्क करना सीखना चाहिए। मनुष्य से द्वेष मत रखिये चाहे उनमें कितनी ही बुराइयाँ क्यों न हों आप तो दुष्टता से लड़ने को तैयार रहिये फिर वह चाहे दूसरों में हो चाहे अपनों में हो या चाहे खुद अपने अन्दर हो।

पाप एक प्रकार का अंधेरा है, जो ज्ञान का प्रकाश होते ही मिट सकता है। पाप को मिटाने के लिए कडुए से कडुआ प्रयत्न करना पड़े सो आप प्रसन्नता पूर्वक कीजिए, क्योंकि वह एक ईमानदार डॉक्टर की तरह विवेकपूर्ण इलाज होगा इस इलाज में लोक कल्याण के लिए मृत्युदण्ड तक की गुंजाइश है। किन्तु द्वेष भाव से किसी को बुरा समझना या उसकी भलाइयों को भी बुराई कहना अनुचित है। जैसे एक विचारवान डॉक्टर रोगी की सच्चे हृदय से मंगल कामना करता है। और निरोग बनाने के लिये स्वयं कष्ट सहता हुआ जी तोड़ परिश्रम करता है। वैसे ही आप पापी व्यक्तियों को निष्पाप करने के लिये साम, दाम, दंड, भेद, चारों उपायों का प्रयोग कीजिये, पर उस पापी से किसी प्रकार का निजी राग-द्वेष मत रखिये।


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