मुरझाये कुसुम के प्रति
(श्री बल्लभ)
खेद करो मन कुसुम! हृदय में अपने मुरझाने का।
जाने कब से चला आ रहा क्रम आने जाने का॥
तुम न रहोगे, किन्तु तुम्हारी, सुरभि सदैव रहेंगी।
विश्व विलास तुम्हारा श्रम है। वह यह कथा कहेगी॥
वह रज जिसमें लोट-लोट कर, बने कुसुम तुम योगी।
अन्त समय में वही तुम्हारी, कोमल शय्या होगी॥
वह कंटक जिनमें विध-विध कर, थे प्रसून तुम खेले।
रोवेगें इस सरस गन्ध को, नाम तुम्हारा ले ले॥
हे उदार! मधु-दान तुम्हारा, कौन भूल जावेगा ?
मधुप-समाज विवश रो-रो कर, अमर गान गावेगा॥
कोटि कल्प से भी बढ़कर है, साधन यह दो दिन का।
अहा! यही सच्चा गौरव है, नश्वर जग जीवन का॥