रणक्षेत्र की पुकार

July 1942

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चलो, उठो खड़े होकर कमर कस लो, जिरह बख्तर पहनो और अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित हो जाओ। रणक्षेत्र से एक आह्वान हुआ है। सदियों से सोया हुआ मरघट आज प्रज्वलित होने के लिए बिलख रहा है। जवानी, वीरता, पौरुष और शौर्य की चुनौती देती हुई युद्ध की देवी पुकार रही है कि आओ, मेरे लालो ! अपना जौहर दिखाओ जिससे मैं अपनी कोख को सफल मान सकूँ।

जीवन निस्संदेह एक संग्राम है। वीर पुरुषों के लिए यह एक चुनौती है कि उठें और अपना गौरव सिद्ध करें। प्राचीन काल में एक रिवाज था। कि कोई महत्वपूर्ण कार्य आगे आता था तो उसे पूरा करने वाला तलाश करने के लिए राज दरबार में पान का बीड़ा रखा जाता था कि जो उस काम को पूरा करने की हिम्मत रखे वह इस पान को उठा कर खा ले। मानव जीवन ऐसा ही पान का बीड़ा है जिसे ईश्वर अपने सरदारों के सामने रखता है कि जिनकी इच्छा हो इसे स्वीकार कर लें जो आत्माएँ मानव जीवन के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए तैयार होती हैं, उन्हें यह दे दिया जाता है। स्कूलों में पुरस्कार रखे जाते हैं। कि जो परीक्षा में प्रथम उत्तीर्ण हो वह इस इनाम को पावे। व्यायामशालाओं में चुनौती रखी जाती है कि जो इतना लम्बा कूद जावे उसे यह पुरस्कार मिलेगा। फौज के सिपाहियों का बल बढ़ाने के लिए सेनानायक नकली लड़ाइयाँ लड़वाते हैं। सिपाहियों को नित्य की परेड और निशानेबाजी की कवायद कराना सेनापति इसलिये आवश्यक समझता है। कि इससे हमारी सेना की क्रियाशीलता और कुशलता बढ़ेगी। अखाड़ों में भारी-भारी मुगदर, डंबल, रस्से और पत्थर इसलिये रखे जाते हैं। कि जो इन्हें उठावें अपने शरीर को पुष्ट करते हुए निरोगता एवं सुदृढ़ता प्राप्त करें।

परमात्मा ने हमें जीवन एक चुनौती की तरह पान के बीड़े की तरह प्रदान किया है कि उसके बताये हुए लक्ष्यों को बेधें। यह लक्ष्य है अन्याय। दुनिया में बहुत से अन्याय दिखाई पड़ते हैं। बहुत सी बुराइयां दृष्टिगोचर होती हैं। पाप और पशुता की भरमार प्रतीत होती है। यह सब हमारे लिए लक्ष्य बेध उपस्थित है, इन्हें बेधने के लिए इन्हें परास्त करने के लिए, हमें जीवन मिला हुआ है। परमात्मा ने कभी तृप्त न होने वाली भूख और प्यास हमारे साथ लगा दी है, ताकि हम कर्तव्य धर्म को न भूल जावें। नित्य श्रम करें, नित्य विचार करें और पेट पालने के लिए जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें सुलझाने के बहाने अपनी शारीरिक और मानसिक योग्यताओं को घिस-घिस कर तेज करें। दुनिया में पाप पशुता और अन्याय की सृष्टि इसलिए की गई है कि हम लोग उनसे जूझे, लड़े हटावे और कर्मवीर कहलाते हुये विजय का मुकुट अपने मस्तक पर धारण करें। माता पिता अपने छोटे बालकों को दौड़ना सिखाते हैं। एक लक्ष्य नियुक्त करते हैं। और उंगली के इशारे से उस स्थान को छूकर हमारे पास वापस आओ। बालक दौड़ता है। वो इधर उधर देखता है। और उस दौड़ में अनमना होकर भाग लेता है। वह पीछे रह जाता है और पिता से अपमानित होता है, किन्तु जिस बच्चे ने जी तोड़ कर कोशिश की थी वह लक्ष्य को छूकर जल्दी वापिस आ जाता है। पिता उसकी पीठ ठोंकता है। और प्रोत्साहन देता है।

दुनिया में फैली हुई बुराइयाँ एक चुनौती है जो हमें ताल ठोक कर अपने से लड़ने के लिए ललकारती हैं। कायर और निकम्मे व्यक्ति इन बुराइयों को देख कर डरते, घबराते और काँपते हैं वे कभी ईश्वर को दोष देते हैं कि उसने यह बुराइयाँ क्यों बनाई कभी दुनिया को दोष देते हैं कि यह ऐसी घृणित है, कभी कुछ सोचते है, कभी कुछ कहते है। यह बहाने बाजी और झुँझलाना हमारी नपुँसकता का चिन्ह है। ईश्वर का इसमें कुछ भी दोष नहीं है। वह जीवों की तुच्छता से महानता की ओर ले जाना चाहता है, छोटे को बड़ा बनाना चाहता है, अपने पुत्र को सच्चा युवराज बनाकर उसे उत्तराधिकार प्रदान करने की यह सब तैयारियाँ हैं। ईश्वर कर्मनिष्ठ है, वह घोर कर्म में लगा हुआ है, उसकी सृष्टि का एक कण अहर्निश बिजली की तेजी से अपनी धुरी पर घूम रहा है। संपूर्ण ग्रह नक्षत्र, जड़ चैतन्य अपने कार्य में बिना एक पल की भूल किये हुए काम में लगे हुए हैं। चैतन्य तत्व का सर्वोपरि धर्म है कर्म करना। पिता की सर्वोपरि सम्पत्ति है कर्तव्य वह पुत्रों को भी कर्मनिष्ठ बना कर अपना सच्चा उत्तराधिकारी बनाना चाहता है। पिता के काम को पुत्र जितना अपनाता जाता है उतना ही वह उसका प्रीति भाजन और साझीदार बनता जाता है। कर्मयोगी क्रियाशील, कर्तव्य परायण कार्य कुशल बन कर अपने पिता का पद प्राप्त करना ही जीवन संग्राम का उद्देश्य है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विरोधी, अरुचिकर, भारी, कष्ट कारक, एवं अप्रिय परिस्थितियाँ पैदा की गई हैं। आप यह मत समझिये कि शीत ऋतु आप का ठंड में मारने के लिए, गर्मी झुलसाने के लिए, वर्षा कपड़े भिगोने के लिए, भूख बेचैन करने कि लिए, कष्ट दुखी करने के लिए, पाप क्षुभित करने के लिए, अन्याय जी जलाने कि लिए उत्पन्न किये जाते हैं। वास्तव में इन सब की सृष्टि इसलिए की गई है कि इन सब से टकराते हुए अपने लिए आप मार्ग तलाश करें। बिना घिसे चाकू तेज नहीं हो सकता, बिना रगड़ के अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, बिना संघर्ष के विकास नहीं हो सकता। विकास को जीवन तथा जीवन पतन को मृत्यु कहते हैं। यदि यह सब कठिनाइयाँ संसार में से उठाली जाएं तो जीवन नाम की कोई वस्तु ही शेष न रहेगी। सारा विश्व प्रलय की मृत्यु निद्रा में पड़कर सो जायगा। इसलिए संसार में फैली हुए अन्यायों को देखकर न तो डरिये, न घबराइये, न झुँझलाइए, न किसी पर दोषारोपण कीजिए वरन् ऐसा मानिये कि विश्व की व्यायामशाला में पाप के मुग्दर हमारे उठाने के लिए रखें हुए हैं। ताकि हम अपने को कर्मयोगी बनाते हुए परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी बन सकें।

मनुष्य जीवन आपको चुनौती के पान की तरह दिया गया है। उस चुनौती को भूलिए मत। जीवन एक संग्राम है, समय रणक्षेत्र है, घड़ी की टिक-टिक करती हुई सैकिंड की सुई हमें याद कराती है और चिढ़ाती है माने वह सैकिंड कहती है कि मूर्ख मैं चल रही हूँ पर तू सो रहा है। साहस के साथ मानव का बीड़ा उठा कर आप अपनी प्रतिज्ञा को क्या इसी तरह अज्ञान की मस्ती में पूरा करेंगे? हाय हम उस ललकार तथा चुनौती को सुनते है और फिर मोह मदिरा की खुमारी में झूम जाते है।

इस मोह और अज्ञान को धिक्कारता हुआ जीवन का रणक्षेत्र हमें ललकारता हुआ चुनौती देता है। कि हे महान पिता के अमर पुत्र! उठ गाण्डीव को उठा और अन्याय अनाचार से जूझ कर अपना कर्तव्य पूरा कर! अन्तर्लोकों से आज हमारे लिए एक ही आवाज आ रही है उठो चलो, खड़े हो कर कमर कस लो, जिरह बख्तर पहनो और अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर रणक्षेत्र को चल पड़ो। मनके भीतर धंसी शरीर के हुई और बाहर खड़ी हुई अन्यान्य की सेना से डट डट कर युद्ध करो। यह धर्मयुद्ध तुम्हारे लिये सर्वथा करणीय है। इसमें तुम्हारी जीत ही जीत है।

हतोवा प्राप्तसि र्स्वग जित्वावा भोक्षसे महीम्।

तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय फृत निश्चयम्॥


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