अध्यात्म का मर्म

June 1991

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मानव जीवन एक सौभाग्य है, वरदान है तथा मनुज काया देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। वे तो इसे पाने के लिए तरसते हैं और कभी-कभी अवसर विशेष आने पर जब इस योनि में अवतरित होते हैं तो अपने भाग्य को सराहते हुये देव जीवन जीते हुए स्वयं को धन्य बना जाते हैं। पर यह तथ्य ईश्वर के ज्येष्ठ पुत्र, उसके युवराज, उसकी श्रेष्ठतम कृति इस इंसान नाम के जीव को क्यों समझ में नहीं आता, यह एक बड़ा दुविधा भरा प्रश्न है? संभवतः शास्त्रकारों-मनीषियों ने इसी कारण मनुष्य को “भटका हुआ देवता” कहा है अर्थात् देवतत्व धारी गुणों की आँतरिक सम्पदा के लिए जन्मी वह जीव सत्ता जो इस मानव चोले में जन्म लेती है पर अपने उद्देश्य के लक्ष्य को भूल कर प्रायः भटक जाती है। मृग-मरीचिका की तरह बहिरंग जीवन के सभी आकर्षण उसे लुभाते-ललचाते हैं व आनन्द के परम स्रोत से जन्मी यह दिव्य सत्ता क्षणिक सुख के उन्माद में अपनी ऊर्जास्विता को, जीवनी शक्ति को, क्षणशः नष्ट करती चली जाती है। अधिकाँश की नियति यही होती है कि वे पेट-प्रजनन के कोल्हू में विचरते हुए जीवन किसी तरह काट लेते हैं।

इस स्थिति से उबरना ही बंधन मुक्ति है। यही मोक्ष है। यही जीवन का परम लक्ष्य है। जो अपनी शाश्वत सत्ता को जान लेते हैं, वे परम सत्ता की आकाँक्षा के अनुरूप जीवन जीते हुए लक्ष्य सिद्धि की ओर बढ़ चलते हैं। इसके लिए साधना अर्थात् “अपने आपको साधना” अपना नियंत्रण अपने हाथ में रखना व श्रेष्ठता-उत्कृष्टता की ओर निरन्तर बढ़ते चले जाना। संक्षेप में यही अध्यात्म का मर्म है।


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