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June 1991

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अपने मन को जीतने वाले समस्त संसार को जीतने वाले से अधिक बलवान है।

“ कहो-कहो भिक्षु रुक क्यों गए। “ वासवदत्ता क्षीण कण्ठ से कह रही थी “आज प्रथम बार मुझे कोई सौंदर्य का पारखी मिला है, अन्यथा सारा जीवन तो मानव तनधारी माँस के भुक्खड़ भेड़ियों से जूझते बीता है। “

“ओह! रूपगर्विणी-महाभिमानिनी समझी जाने वाली इस वासवदत्ता के अन्दर भी व्यथा है “ उसे आज पता चला। प्रत्यक्ष में विपत्ति का ढेर लगा देने वाले-जीवन को दहकते अँगारों में झोंक देने वाले-कष्ट, परोक्ष में इसी आत्म सौंदर्य को प्रकट करने के लिए यह वेदना है। आत्मसत्ता पर चढ़े मल, विक्षेप, आवरणों को भस्म करने के निमित्त है, ताकि सत्प्रवृत्ति सत्चिंतन के रूप में जीवन अपने खोए सौंदर्य को प्राप्त कर सके।

रात्रि समाप्त हो रही थी साथ ही वासवदत्ता के जीवन की कालिमा भी। वह अपने खोए सौंदर्य को अनुभव करने लगी थी। उसने अपने अन्दर के देवता को पहचान लिया था।

महामारी समाप्त होने के बाद वासवदत्ता परिव्राजिका हो गई, तथागत की जीवनविद्या का प्रसार करने वाली भिक्षुणी। अब वह रूपगर्विता नहीं, स्वरूप का सौंदर्य बोध कराने वाली शिक्षिका थी। एक सौंदर्य का पारखी अनेकों को उनका खोया स्वरूप, वैभव उपलब्ध करा सकता है, उसका जीवन इस तथ्य का प्रमाण बना।


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