“गहना कर्मणो गतिः”

June 1991

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उस दिन ‘प्रीमियर साहब’ एक दूरस्थ जिले का दौरा करने निकले थे। साथ में वह भी था उनके। सर्किट हाउस में भारी भीड़, स्वागत सत्कार, तेज बारिश के झोंके की तरह आया और चला गया। दोपहर में उन्होंने उसे अचानक बुलाकर कहा “तुम्हें एक जगह मेरे साथ चुपचाप चलना है। तैयार हो जाओ।” अचानक कही गई इस बात ने उसे न तो हतप्रभ किया और न आश्चर्यचकित। जब से अंतरिम-सरकार बनी-इस तरह के दौरे नित्य के कार्यक्रम में शामिल हो गए थे। यों फरवरी 1937 के चुनावों के बाद अंतरिम सरकारें ग्यारह प्रान्तों में बनी थीं। संयुक्त प्रान्त की बात कुछ और ही थी। यहाँ तो जबरदस्त भूचाल आ गया था। व्यवस्था परिवर्तित परिशोधित होने लगी थी।

यद्यपि देश ने अभी आजादी नहीं पाई थी। पर विश्वास जमने लगता था कि आजादी मिल कर रहेगी। भले ही उसे पेट और परिवार के कारण क्लर्की करनी पड़ रही थी, लेकिन देश के लिए जज्बात कम न थे। उसे अभी भी याद है वह घटना जब उसे उसके डिप्टी सेक्रेटरी ने बुलाया था। सामने जाते ही वह बोले थे “अपने प्रीमियर तपे-तपाए गाँधी जी के खरे शिष्य हैं।” “इसमें क्या शक है साहब। “ उसका उत्तर भावों में सना था। “पाँच महीनों में वह छः पी. ए. बदल चुके, मगर उन्हें मन पसन्द पी. ए. नहीं मिल रहा। उनका कहना है ईमानदार मेहनती और देश के प्रति भावपूर्ण मन रखने वाला पी.ए. अगर मिल जाए तो जो वे करना चाहते हैं, वह बहुत सहज हो जाए। मैंने जब तुम्हारी विचारणा से उन्हें अवगत कराया तो वे बहुत खुश हुए।” डिप्टी केक्रेटरी के इन शब्दों से आज के इस क्षण तक वह उनका व्यक्तिगत सहकारी था।

“ क्या सोचने लगे मोहन? “ उसे कार में बैठाते हुए प्रीमियर साहब ड्राइवर से बोले “तहसीलदार के दफ्तर चलो।” चार शब्दों के इस समूह ने उसे थोड़ा चौंकाया। न कलेक्टर को खबर, न एस. डी. ओ. को, तहसीलदार को भी कुछ नहीं मालूम? स्वयं उसे भी नहीं मालूम था। थोड़ी देर में तहसील के द्वार पर जब उनकी गाड़ी रुकी तो हड़कम्प मच गया। प्रीमियर स्वयं आए हैं- सुनते ही तहसील का सारा अमला घबरा गया। तहसीलदार बदहवास भागे हुए आए। स्वागत करने के भाव में, बदहवासी में पता नहीं क्या क्या बके जा रहे थे। उनकी वाक्य शृंखला को अनसुना करते हुए उन्होंने बताया कि वे उनके दफ्तर का मुआयना करेंगे। अब तो तहसीलदार का पूरा शरीर पसीने से भीग गया।

उसे भी हैरानी कम नहीं थी, आखिर प्रीमियर महोदय देखना क्या चाहते हैं और यह तहसीलदार इतना नर्वस क्यों हैं? तहसील के अमले के चेहरों पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं? तभी उन्होंने कुर्ते की जेब से एक तुड़ा-मुड़ा कागज निकाला और फाइलों के नम्बर नोट कराने लगे। तकरीबन पचास-पचपन फाइलें लाने का हुक्म सुना दिया। अब तो तहसीलदार, पेशकार, नाजिर, वासिल बाकी नवीस, नकलनवीस सभी के चेहरों पर लगा कि गहरी स्याही पुत गई। टूटते लड़खड़ाते शब्दों में तहसीलदार बोला- “ आप विश्राम गृह पधारें मैं फाइलें ढुँढ़वा कर लाता हूँ। ढूंढ़ने में समय लगेगा, पेशियों को जनता बैठी है। आप बेकार परेशान होंगे।” मगर प्रीमियर साहब भी विचित्र, बोले “आप ढूँढ़िए जब तक मैं यही बैठा हूँ।” तब तक काफी भीड़ जमा हो गई।

थोड़ी देर में कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, वगैरह भी भागे-भागे गए। सारी बात सुनाकर उनसे कहा “आप सब अपने-अपने दफ्तर जाएँ जरूरत होने पर बुलवा लूँगा। “ मगर किसी ने हिलने का नाम नहीं लिया।

शाम चार बजे तक थोड़ी सी फाइलें आयीं जिन्हें लेकर उपस्थित अफसरों की ओर कड़क कर बोले- “एक घण्टे में शेष फाइलें पहुंच जानी चाहिए।” विश्राम गृह में शाम तक कुछ फाइलें और पहुंची। प्रीमियर साहब ने बाहर कहलवा दिया सिवा कलेक्टर के और कोई अन्दर न आये। अंग्रेज कलेक्टर के साथ बैठकर फाइलों की शल्य क्रिया सम्पन्न होती रही। कैसे किसी की जमीन औरों को दी जाती है? किस तरह सैकड़ों एकड़ जमीन नौकरों, कुत्तों, बिल्लियों के नाम करा कर सीलिंग कानून से बचा जाता है। किसी ने कर्ज लिया ही नहीं मगर वसूली में उसकी जायदाद जब्त जमींदारों के नए-नए कारनामे आदि अनेकों बातें तरह-तरह से अपना रहस्य उजागर करती रहीं। अंग्रेज कलेक्टर भी इस घटना चक्र से भौंचक्का था।

रात एक बजे तक वह करिश्मा चलता रहा। जिसके परिणाम में भ्रष्टता, अन्याय और नियमों का उल्लंघन अपने चरम रूप में उजागर हुआ। प्रीमियर साहब गुस्से में होंठ काटते हुए पी. ए. से बोले “देखा मोहन! लोग कहते हैं अँग्रेजों ने भारत को तबाह किया है। पर नहीं इस तबाही के जिम्मेदार अंग्रेजों से ज्यादा भारतीय स्वयं हैं। चलो, अंग्रेजों के लिए तो यह पराया देश है, पर जिनका अपना देश है, उनके करतब तो इस कदर घिनौने हैं कि घिनौनापन भी उन्हें देखकर मुँह बिचकाले।”

कार्य विराम के बाद उसकी नींद लगी ही थी तभी द्वार खटका। कमीज पहन कर बाहर निकलने पर देखा कि हिन्दुस्तानी तहसीलदार और डिप्टी कलेक्टर इशारे से बुला रहे हैं। पास जाने पर एक कोने की ओर ले जाकर बोले “देखो हम तुम दोनों कर्मचारी हैं एक बिरादरी के आदमी। ये प्रीमियर साहब तो आज हैं कल नहीं। “कहते हुए एक चमड़े का बैग थमाया फिर आँखों में आँखें डाल कर बोले “कम हों तो वह भी पूरा कर देंगे पर सारी फाइलें आ जानी चाहिए। “ सुनकर वह एकबारगी सिहर गया, एक ओर महात्मा गाँधी की इतनी ऊँची कल्पनाएं उन कल्पनाओं के लिए अपना सर्वस्य न्यौछावर करने वाले प्रीमियर साहब जैसे आदमी। दूसरी ओर, दूसरी ओ... र लगा पिशाचों की पूरी सेना खड़ी है। सामने का धुँधका आँखों में समाने लगा, हाथ का बैग छूट गया और वह पीछे मुड़कर चल पड़ा। “मुझ से यह न होगा” उसके द्वारा कहे गए ये शब्द वातावरण को स्पन्दित करते रहे।

राजधानी लौटने पर हुई कार्यवाही के परिणाम स्वरूप तहसीलदार सस्पैंड हुए। सारे स्टाफ का तबादला हुआ। इसी बीच अंतरिम सरकारें भंग हो गई। प्रीमियर साहब असहयोग आन्दोलन में जेल चले गए। वह पुनः पी.ए. की जगह सामान्य क्लर्क बन गया।

इस बीच उसे तहसील वाली यह घटना भूल चुकी थी। लेकिन एक दिन वही तहसीलदार अपने पूरे रौब में उसके सामने आ कर बोला “मि. मोहन लाल मुझे पहचाना। मैं वही तहसीलदार हूँ, जिसको आपके प्रीमियर साहब ने सस्पैण्ड किया था। लेकिन मेरा क्या बिगाड़ पाए! जाँच होने पर मुझे इतने सालों की तनख्वाह मिली और साथ में प्रमोशन अब ठाठ से डिप्टी कलेक्टरी कर रहा हूँ। हो सकता है कल सचिवालय आकर तुम्हारा अफसर बन जाऊँ और तुम्हारे प्रीमियर साहब तो जेल में पड़े हैं। “ सुनकर उसका सिर चकरा गया यही है भगवान की कर्म व्यवस्था। अपराधी आनन्द लूटे और नीतिपूर्ण जीवन जीने वाला कष्ट उठाए। तब कर्मफल का सिद्धान्त...? प्रश्न दीवारों से टकराकर उसके पास पास लौट आया।

दिन-महीने साल के बहते काल प्रवाह में बहुत कुछ बदल गया। देश से अँग्रेजी शासन उठ गया। स्वतन्त्र भारत में पहले आम चुनाव हुए। अब की बार प्रीमियर साहब कभी के संयुक्त प्रान्त और अब के उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री बने। संयोग से पुनः वह उनका व्यक्तिगत सहकारी था। तभी एक दिन डिप्टी कलेक्टर साहब के बीमार होने की खबर सुनने में आयी। उनसे मिलने वह अस्पताल में गया। लकवा मार जाने के कारण उनका बांया अंग पूर्ण निष्क्रिय था। बोलने में भी पूरी तरह असमर्थ थे।

उसे देखते ही उनकी आँखें बरस पड़ी। मुँह से गें गें की आवाज आने लगी। उसने उनका हाथ अपने हाथ में लिया। उन्होंने पास खड़े व्यक्ति को कागज कलम लाने का इशारा किया। फिर सिरहाने की ओर रखे तकिए पर झुक कर वे कुछ लिखने लगे। लिखकर कागज उसके हाथों में थमा दिया और बिस्तर में फैल गए। वह कागज पढ़ने लगा उसमें लिखा था “तुम्हीं ठीक थे मोहन, मेरे जीवन के सारे अपराध आज मेरे मन में किस कदर तूफान मचाए हैं शायद ही कोई अनुमान कर पाए। परिवार बरबाद हो चुका। लड़के निकम्मे और आवारा निकल गए। हो सके तो भगवान से मेरे लिए प्रार्थना करना। काश.... मुझे यह सब पहले समझ में आ जाता....।” कागज पढ़ कर उनके चेहरे की ओर देखा और बेचैनी गहराई। आँखों से लुढ़कते अश्रु बिन्दु गालों को भिगो रहे थे। साँत्वना भरे शब्दों के अलावा और क्या था उसके पास?

अगले दिन कार्यालय में मुख्यमंत्री महोदय को सारी घटना कह सुनाई। पं. गोबिन्द वल्लभ पंत ने एक क्षण उसकी ओर देखा, फिर उनकी मूँछों से मुस्कान की पतली-पतली अनेकों किरणें चमकीं। अगले क्षण इन सब ने गम्भीरता का रूप ले लिया। वे कह रहे थे-”विचार जगत में दुष्कर्म का भाव उठते ही अस्त-व्यस्त उद्विग्नता छाने लगती है। किन्तु इसे अनदेखा कर देता है मनुष्य। दुष्कर्म करते समय भय, आशंका, अनिश्चय भरी आकुलता उसे घेरे रहती है पर अपने उन्माद में वह इसकी ओर भी ध्यान नहीं देता। दुष्कर्म हो जाने पर स्वयं को वह सतत् असुरक्षित महसूस करता है। स्वयं उसका मन उसके लिए काल दण्ड धारी यमराज हो जाता है ओर उसके भरपूर प्रहारों का सिलसिला उसके जीवन को बिखेरे बिना नहीं रहता। शृंखला लम्बी होने के कारण भले देर में समझ में आए। पर क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित है। अच्छे-बुरे भावों के अनुसार कर्म का परिणाम मिले बिना नहीं रहता। यह सुनिश्चित जान लेना।” उसका समाधान हो चुका था।


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