अपने जाल में फँसाते (Kahani)

June 1991

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एक चतुर हलवाई किसी सेठ के यहाँ से दावतों में काम आने वाले चाँदी के बर्तन किराये पर ले जाया करता था। नियत समय पर लौटा देता और किराया दे जाता।

इस हलवाई ने चतुरता का खेल खेला। दस छोटे बर्तन से लाकर सेठ को दिये और कहा कि इनने बच्चे दिये हैं। बर्तन आपके तो बच्चे भी आपके। इन्हें रखें।

मुफ्त की आमदनी सेठ को भी बुरी नहीं लगी उसने बढ़े हुए बर्तन रख लिये और आपको जितने अधिक बर्तनों की जरूरत हुआ करे प्रसन्नतापूर्वक ले जाया कीजिए। थोड़े दिन तो वैसा ही व्यवहार चलता रहा। एक दिन हलवाई ने बड़ी दावत की सूचना दी और घर के सारे बर्तन देने का आग्रह कर दिया। बच्चों के लोभ में सेठ ने सारे बर्तन निकाल दिये।

हलवाई चुप बैठ गया। कहा वो अपने आप लौटा जाता था पर अब तकाजे करने पर भी मौन था। एक दिन सेठ जी उसके घर स्वयं गये बर्तन माँगे, तो उसने चेहरे को दुखी बनाते हुए कहा बर्तन तो सभी मर गये किस मुँह से आपके पास जाता।

कहा सुनी हुई तो उसी किस्म के लोग इकट्ठे हो गये और एक मुँह होकर कहने लगे जो बर्तन बच्चे दे सकते हैं, वे मर क्यों नहीं सकते?

ठग इसी प्रकार मूर्खों को अपने जाल में फँसाते और करारी चपत लगाते हैं।


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