काला पहाड़

June 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“राजन! नाशवान शरीर इतना जरूरी नहीं कि उसके मोह से ब्राह्मण अपने कर्तव्य को ठुकरा दे।” दुबले-पतले झुर्रीदार शरीर वाले इस वृद्ध के बाल ही नहीं रोएँ तक सफेद पड़ गए थे। किन्तु गोरे रंग के इस ब्राह्मण के विशाल माथे पर सौम्य तेज की चमक थी। उसकी आँखों में भय का नामोनिशान न था। “भगवान विश्वनाथ यह विग्रह स्वयम्भू है। उन प्रलयंकर ने यदि इससे अपना तेज समेटने की सोची है तो सेवक को अपने शरीर की अन्तिम भावांज्जलि भी अर्पित करनी चाहिए। तुम प्रजा और अपने परिवार की रक्षा करो।”

“प्रजा का रक्षणीय वर्ग यथा सम्भव सुरक्षित जगहों पर भेजा रहा है।” काशी नरेश के स्वर में कोई उत्साह नहीं था वैसे वह मृत्युदूत किधर से आएगा कोई ठिकाना नहीं। अब तो आप आशीर्वाद दें कि क्षात्रधर्म के पालन में यह शरीर सार्थक हो।”

“तुम शूर हो।” तपस्वी ने एक बार आकाश की ओर ऐसे देखा जैसे नियति की लिखावट पढ़ रहे हों। “मरण भी उसका मंगल पर्व है, जो जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति देश, धर्म, समाज, संस्कृति की रक्षा के लिए कर सके।”

“लेकिन आतंक का अंत असंभव सा लगता है। कहीं सचमुच मैं इस भारत भूमि के आतंक का अन्त कर पाता।” राजा के इन शब्दों में संघर्ष के निश्चय के बावजूद निराशा की वेदना थी। “हाँ! आत्माहुति जरूर दे सकता हूँ और वह दूँगा।”

“नरेश! जो द्वेष और स्वार्थ रहित हैं, जिनने अपनी स्वाभाविक दुर्बलताओं को जीत लिया है, उनके बलिदान को बेकार कर देने की ताकत विश्व नियन्ता में भी नहीं।” ब्राह्मण का मुख तेजोदीप्त हो गया। नाभिकमल से उठते परावाणी के पूर्ववर्ती स्वर पश्यन्ती से अलंकृत आशीर्वाद दे गए -”तुम्हारा आत्मदान आतंक के अंत का निमित्त अवश्य बनेगा।”

“देव।” नरपति ने विह्वल होकर उनके चरण पकड़ लिये। “मेरे मरण को तो अशून्य कर दिया आपके इस आशीर्वाद ने, किन्तु आप.....,”

“मेरी चिन्ता न करो। मैं विश्वनाथ की गोद में अभय हूँ।” उन्होंने सुरक्षित स्थान जाने का आग्रह दुबारा अस्वीकार कर दिया। वह कह रहे थे “आतंक के अन्त में ब्राह्मण अग्रणी न बने तो कर्म की पूर्णता कैसे सधेगी।” विवश नरेश लौट गए।

“काला पहाड़ आ रहा है!” कितना भयंकर है यह संवाद। प्रलय का संदेश भी शायद इतना दारुण नहीं। वह नृशंसता की नग्न मूर्ति-जनपदों को फूँकते रौंदते मानव के छिन्न-भिन्न शवों से धरती को वीभत्स बनाते पिशाचों की सेना के समान आँधी के वेग से आने वाला निष्ठुर हत्यारा जिधर जाता है, दिशा उजाड़ हो जाती है। उड़ीसा को रौंदकर, उसके शासक मुकुँद देव को मारकर उसने मित्रता गाँठी है दिल्ली के बहलोल लोदी से। अब जौनपुर को तबाह करता चल पड़ा है काशी की ओर।

काला-पहाड़ हिन्दू समाज की जातीय संकीर्णता की उपज। उच्च ब्राह्मण कुल में जन्मे नयनचन्द राय का लड़का “कालाचन्द राय।” बंगाल के नवाब की लड़की दुलारी बीबी से शादी करने के बाद कितना अपमानित किया उसके पैतृक समाज ने। उसने आरजू-मिन्नतें की “जो कहोगे प्रायश्चित कर लूँगा मुझे अपने से बाहर न करो।” किसी ने नहीं सुनी उसकी एक। अब वह है प्रतिशोध का आतंक, मन्दिरों का विरोधी पूरी हिन्दू जाति का शत्रु। वह अपने को मुहम्मद फर्मूली कहता है, लोग कहते हैं उसे काला पहाड़ असलियत में है वह सामाजिक कट्टरपन से उपजा मूर्तिमान आतंक।

“उसका आना।” नगर उजाड़ बन गए। घर उल्लुओं सियारों के रहने के लिए छोड़ दिए गए। लोगों के समूह भाग रहे थे। पैदल-छकड़ों की असंख्य संख्या भाग रही थी। हर मुख पर एक ही चर्चा काला पहाड़ आ रहा है। इस समूची तेरहवीं शताब्दी में उस जैसा कोई नहीं शायद पहले भी नहीं बाद में भी नहीं। हर मुख श्री हीन, भय विह्वल। बालक वृद्ध स्त्री-पुरुष और उनके पशु भी साथ हैं। हर कोई भयभीत है चारों दिशाओं में भय समाया है आज। सामाजिक कट्टरता जाति से बहिष्कृत करने की प्रवृत्ति यही है भय की माँ। अभी तक हमने सीखा है अपनों को पराया बनाना, कब बनाएंगे परायों को अपना।

“देश पुकारता है! धर्म पुकारता है! “ अकस्मात् भेरीनाद के साथ उस दिन गाँव-गाँव-पथ में घोषणा सुनाई पड़ी “आतंक के दिन अधिक नहीं हैं,बढ़ चलो संघर्ष की राह पर। युवकों! तरुणों! देश तुम्हें पुकारता है। संस्कृति तुम्हारा आह्वान करती है! तुम इस पुकार को भी अनसुनी कर दोगे? “भागते कदम ठहर गए। नारियाँ कान उठा कर सुनने लगीं। उद्घोषक कह रहा था “एक ब्राह्मण के नेतृत्व में संस्कृति की रक्षा का महापर्व आज पुकार रहा है, तुम इसे अनसुना कर सकोगे? “

“नेतृत्व ब्राह्मण का है?” विश्वास जगा “हम सुनेंगे यह पुकार क्या करना है हमें?” युवकों, तरुणों ने ही नहीं वृद्धों तक ने उद्घोषकों को जगह-जगह घेर लिया। अनेक जगह पर नारियाँ आगे आ गई थी “ बतलाओ हमें क्या करना है?”

“संगठित हो जाओ और संघर्ष करो, तपस्वी सुगतभद्र का यही आदेश है। महाकाल के आराधक ने यही कहा है कि पहले तुम अपनी बुराइयां निकालो, ईर्ष्या-द्वेष को समूल उखाड़ दो तभी तुम संगठित हो सकोगे और तब बढ़ जाओ आसुरी शक्तियों से लोहा लेने यही अंतिम क्षण है। “

प्राणों का ज्वार अनेक रूपों में बह चला संघर्ष! संघर्ष!! संघर्ष अनीतियों से-कुविचारों से, वे चाहें कहीं क्यों न हों? बड़ा तुमुल संघर्ष था। दैवी शक्तियों और आसुरी शक्तियों की प्रबल भिड़न्त थी। लोमहर्षक रोंगटे खड़ा कर देने वाला संग्राम। वर्तमान के सघन तिमिर और भविष्य के उजाले के बीच जोरदार टक्कर।

“कापुरुष। तू और क्या कर सकता था? “ढाई हड्डी का दुर्बल ब्राह्मण काला पहाड़ को ये शब्द कहे, कौन कल्पना कर सकेगा। जिस प्रचण्ड झंझावात के सम्मुख समूचा महाअरण्य धराशायी हो जाता है उसके सामने...। भीषण ताण्डव मचा काशी में। रणभूमि से रक्तारक्त शरीर अंगारे जैसे नेत्र खून टपकती तलवार लिए काला पहाड़ सीधे विश्वनाथ मन्दिर आया था। नीले रंग के कपड़े पहने, म्लेच्छ सेना के कुछ मुख्य नायक उसके पीछे थे।उन उद्धत लोगों के घोड़े मन्दिर के भीतर गर्भगृह के सामने एक आ गए। किन्तु जैसे ही वह घोड़े से कूदा महाकाल का आराधक यह वृद्ध ब्राह्मण द्वार पर सामने दिखा।

“कापुरुष! काला पहाड़ तू कायर है?” “मूर्ख ब्राह्मण! क्या कहता है तू? “ चीखा वह काजल जैसे काले रंग का अत्यन्त दीर्घ एवं प्रचण्डकाय दैत्य।

“इन असहायों की हत्या से, अपवित्र शस्त्र और इन दौलत के लोभी पिशाचों को लेकर तू शूर समझता है अपने को? कायर कहीं का।” बूढ़े ब्राह्मण की वाणी में सिर्फ शब्दों का तीखापन नहीं था, उसमें वह उपेक्षा और तिरष्कार था, जो कोई किसी पशु को भी नहीं देता।” शूर थे वे जिन्होंने अन्याय का प्रतिकार करने में अपना बलिदान दिया। तू अभिमान में डूबा भीरु है।”

“ले” कहकर हाथ का शस्त्र काला पहाड़ ने पूरी ताकत से एक ओर फेंक दिया। झनझना कर टूट गई वह भारी तलवार। पीछे घूम कर उसने अपने अनुचरों को हुक्म दिया “दूसरे सब बाहर चले जायँ।”

“ नपुँसक! मैं नहीं जानता था तू मूर्ख भी है।” “ब्राह्मण ने झिड़क दिया।” अब तू मुझ बूढ़े से मल्ल युद्ध करेगा। तू समझता है कि शौर्य सैनिकों में और शस्त्र में नहीं है तो तेरे इस हिंसा परायण पापी शरीर में है। हड्डी, माँस, विष्ठा में है शौर्य, यह तेरे जैसे बेवकूफ की ही समझ है। “ वृद्ध की वाणी नहीं उनका तप प्रवाहित हो रहा था। वाणी तो सिर्फ माध्यम थी, उनकी दोनों आँखें दो मध्याह्न-कालीन सूर्यों की तरह प्रकाशित थीं। कुछ घट रहा था अद्भुत-अद्वितीय जिन्हें सामान्य साँसारिक आँखें देखने में असमर्थ थीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118