संस्कारों की प्रबलता व ऊर्ध्वगामी पुरुषार्थ

June 1991

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“आप पूर्व जन्म के ऋषि हैं। चिरकाल तक हमारे साथी-सहचर रहे हैं। वही पूर्व संबंध इस जन्म में फिर जाग्रत हो आए हैं। आपको पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए हम शक्ति भर प्रयत्न करेंगे।” यह पंक्तियाँ परम पूज्य गुरुदेव के पत्रों से उद्धृत हैं जो उनके द्वारा प्रकारान्तर से इन सभी को लिखी गयीं जिन्हें वे प्रसुप्त का बोध कराके महानता से जोड़ना चाहते थे व इसी शृंखला में अगणित परिजनों को मणि-मुक्ताओं को गूँथकर एक हार के रूप से विनिर्मित कर वे एक विशाल गायत्री परिवार बना गए।

हर हनुमान को यदि जामवंत की तरह आत्मबोध कराने वाला मिल जाय तो उसका अंतः का वैभव निखर सामने आ जाय। पूज्यवर ने यह अपने जीवन में साकार औरों को यही प्रेरणा देकर उन्हें कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया? वस्तुतः मनुष्य जिस मूलभूत सत्ता का बना है वह हाड़-माँस का यह शरीर नहीं वरन् अंतःकरण में विद्यमान वे दिव्य संस्कार हैं जो उसे मानवी गरिमा का बोध कराके सतत् ऊँचा उठने की प्रेरणा देते रहते हैं। बाहर से दीखने में तो सभी एक जैसे हैं, सभी का चोला नर तन का है, परन्तु संस्कारों की सम्पदा ही वह विशिष्टता है तो एक को दूसरे से अलग करती है।

बहुधा हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ नितान्त प्रतिकूल व पूरी तरह भौतिकता प्रधान होते हुये भी कुछ महामानव अपनी प्रसुप्त सुसंस्कारिता के कारण प्रबलतम पुरुषार्थ सम्पन्न करते, प्रवाह के विपरीत चलते वह अपनी विशिष्ट भूमिका सम्पन्न कर महाकाल के अग्रदूत बनते देखे जाते हैं। यहाँ आत्मिकी का पौर्वार्त्य अध्यात्म का वही सिद्धान्त चरितार्थ होता है परिस्थितियाँ कितनी ही विषम क्यों न हो, अंदर सोये पड़े संस्कार व्यक्ति के प्रचण्ड मनोबल के साथ जुड़कर विषमताओं के घटाटोप को भी निरस्त करने की सामर्थ्य रखते हैं।

बीज यदि सही है, गलकर अंकुरित हो कर ऊपर जाना चाहता है तो कोई भी शक्ति उसे रोक नहीं सकती। मिट्टी पानी खाद का होना अपनी जगह सही हो सकता है पर इन सबके होते हुए भी बीज में यदि घुन लगा हो, वह सही स्तर का न हो तो उससे अंकुर फूटने की संभावना न के बराबर ही रहती है। जब मानवी संस्कारों रूपी बीज की चर्चा की जाती है तो चाहे अनुकूल बनाने वाली परिस्थितियाँ हों न हों, वह विकसित होते देखा ही जाता है क्योंकि वह उसी अभीप्सा के साथ इस धरती पर आया है।

प्रस्तुत भूमिका जिस संदर्भ में प्रतिपादित है, वह परम पूज्य गुरुदेव के प्रारंभिक जीवन के घटनाक्रमों से संबंधित है। एक अद्भुत साम्य योगीराज अरविन्द एवं परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में संबंध में देखने को मिलता है। दोनों के जीवन के प्रारंभिक वर्षों में कुछ ऐसे मोड़ आए जिनमें अंत की सुसंस्कारिता की प्रबलता की प्रचण्ड परीक्षा ली गई। दोनों ही उत्तीर्ण रहे व संघर्ष करके, उभर कर महामानव के रूप में विकसित होने में समर्थ रहे। बाद में श्री अरविन्द ने स्वयं को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पांडिचेरी जाकर एकाकी तप में नियोजित कर लिया व पूज्य गुरुदेव अपनी कोठरी में पधारे दैवी सौभाग्य के, परोक्षसत्ता के संरक्षण में चलते हुए करोड़ों के हृदय के सम्राट बने।

यह विशेषता महामानवों, देवमानवों, पैगम्बरों, युग ऋषि स्तर का क्रान्तिकारी जीवन जीने वाले कतिपय उंगली पर गिने जा सकने वालों में ही देखी जाती है। अधिकाँश तो बहिर्जगत में चल रहे प्रवाहों में बहते या प्रचलनों के साथ अंधानुगमन देखे जाते हैं। जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, अपनी नहीं अपने अतिरिक्त अन्य अनेक जो जीवधारी हैं उनकी मुक्ति हेतु अध्यात्म पराक्रम में जुटना। सब के लिए संघर्ष करना व उन्हें सही मार्ग दर्शाना। यही पुरुषार्थ पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर किया व इसमें सहायता दी उनके उच्चस्तरीय संस्कारों ने, उस बीज ने, जिसे गलकर एक विराट वृक्ष बनना था व अपनी छाया में अनेकों को शरण देनी थी।

शुद्ध बुद्ध निरंजन आत्मा के रूप यह जीव जब जन्म लेता है तो उस पावन दिन को जन्म दिवस के रूप में याद किया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिवस हम बसंत पंचमी को को उनके ही निर्देशानुसार मनाते रहें हैं। पर काया का इस धरती पर अवतरण संवत् 1968 में आश्विन माह में कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन (20 सितम्बर 1911 को) प्रातः 8 से 9 के मध्य हुआ। एक संस्कारवान तपस्वी ब्राह्मण परिवार में जन्में बालक श्रीराम को किसी प्रकार की कमी न थी। भौतिक दृष्टि से संपन्नता थी, पढ़ लिखकर बड़ा बनकर गुजारा चलाने व ऐश्वर्य भरा जीवन जीने के लिए बना बनाया मार्ग था। चाहते तो वे भी पिता की तरह भागवत परायण पंडित बनकर, बिना बाधाओं को आमंत्रित कर एक सरल सुखमय जीवन जी सकते थे। लेकिन उनने ऐसा नहीं किया। प्रारंभ से ही उनके संस्कारों की प्रबलता व सुदृढ़ मनोभूमि अपना परिचय देने लगी।

यहाँ श्री अरविन्द के जीवन का प्रारंभिक काल देखते हैं तो एक विलक्षण साम्य हम पाते हैं। 15 अगस्त सन् 1872 को कलकत्ता में जन्मे श्री अरविन्द को डॉ. कृष्णाधन घोष के रूप में अपने पिता पूरे पाश्चात्य रंग में रंगे हुए मिले। माँ सतत् बीमारी रहती थीं पिता स्वयं चिकित्सा की डिग्री प्राप्त करने पश्चिम होकर आए थे। वह नहीं चाहते थे भारत की पौर्वार्त्य रहस्यवाद व अध्यात्म की कोई छाया भी उनके तीनों बच्चों पर पड़े। जिस समय बच्चों में संस्कारों का पोषण करने हेतु उन्हें धार्मिक कथाएँ सुनाई व विभिन्न प्रकार से उनके मानस को प्रभावित करने के विभिन्न उपक्रम रचे जाते हैं, उस समय श्री अरविन्द की पूरी तरह पश्चिमी सभ्यता में रंगने की तैयारी चल रही थी। उन्हें पाँच वर्ष की आयु में ही आयरिश कान्वेण्ट स्कूल, दार्जलिंग भेज दिया गया। मातृ भाषा बंगाली वे सीख नहीं पाए व मात्र अँग्रेजी ही उनके वार्तालाप का माध्यम बनी। छह वर्ष की आयु से बीस वर्ष की आयु तक दोनों भाई इंग्लैण्ड में साथ-साथ रहे। उन्हें गवर्नेस के रूप में मिस पैजेट नामक एक आँग्ल महिला मिली जिस ने उन्हें क्रिश्चियेनीटी के प्रभाव में डालने की अपनी पुरजोर कोशिश की। पिता का सख्त निर्देश था कि अरविंद व उनके भाई को किसी भारतीय की संगति से बचाया जाय। मैन्चेस्टर व बाद में स्कॉलरशिप प्राप्त कर कैम्ब्रिज में पढ़े अरविंद घोष ने शैली, होमर, एरिस्टोफेन्स, दाँते, गोथ आदि को रट डाला व फ्रेंच तथा आँग्ल साहित्य में निपुणता अर्जित करती। यदि श्री अरविंद के निज के संस्कार सशक्त न होते तो चौदह वर्ष के अपने बाल्यकाल के ही उस विदेशी भूमि के प्रवास में वे पूरी तरह वैसे ही ढल गए होते जैसा उनके पिता जी ने चाहा था।

यहाँ बीच में प्रवाह रोक कर परमपूज्य गुरुदेव के जीवन वृत्त पर एक दृष्टि डालना ठीक होगा। उन्हें श्री अरविन्द की तरह पाश्चात्य मनोभूमि वाले पिता का सामना नहीं करना पड़ता। उनके पिता पं. रूपकिशोर शर्मा जी वाराणसी में महामना मदन मोहन मालवीय जी के बाल सखा रहे थे व वे स्वयं बच्चे की शिक्षा-दीक्षा में रुचि लेते हुए उसकी आत्मिक प्रगति की दिशा में गतिशील थे। गायत्री माता के रूप में ब्राह्मण की कामधेनु की व्याख्या उन्हीं के द्वारा उन्हें सुनने को मिली थी व उनके ही कारण वे मालवीय जी के हाथों यज्ञोपवीत पहनने का सौभाग्य प्राप्त कर पाये थे। इतना सब होने पर भी आकाँक्षा उनकी यही थी कि उनका पुत्र सीधा सा मार्ग पकड़े, पाण्डित्य अर्जित कर वही काम करे जो जीवन भर उनने किया था। किन्तु माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध औपचारिक शिक्षा प्राइमरी तक ही पढ़कर सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होते हुए भी बालक श्रीराम ने समाज देवता की आराधना के बीजाँकुरों को पोषण देना आरंभ कर दिया। घर का वातावरण कट्टर, संकीर्ण जाति प्रधान था किन्तु वे गंदगी साफ करने वाले शूद्र व निम्न जाति के माने वाले वर्ग में घूमते देखे जाते। छपको नामक मेहतरानी के घाव धोकर उसकी सेवा में उन्हें जो स्वर्गोपम आनन्द मिला था, वह घरवालों की उपेक्षा, डाँट व कड़े से कड़ा दण्ड पाने के बाद भी सतत् याद बना रहता था। तत्कालीन ग्रामीण परिवेश में यह प्रकार की सामाजिक क्रान्ति ही थी। जब निरक्षरों को साक्षर बनाने का, असमर्थों को समर्थ बनाने का विद्यालय अपनी हवेली में खोले हुए थे। अपनी माँ को भी उनने सभी धर्मों की महिलाओं को उनके द्वारा दिये जा रहे प्रौढ़ शिक्षण में जबरन सम्मिलित कर लिया था। अमराई में बैठकर घण्टों साधना में निरत रहना, किन्तु असहायों में बैठकर घण्टों साधना में निरत रहना, किन्तु असहायों की मदद हेतु तुरंत पहुँच जाना पूज्यवर के जीवन की एक ऐसी विशेषता है जो बिरलों में पायी जाती हैं।

पिता पं. रूपकिशोर जी अधिक दिन जीवित नहीं रहे। जब बालक श्रीराम ग्यारह या बारह वर्ष के ही थे उनके पिता का निधन हो गया। लौकिक दृष्टि से संभवतः पिता को अपने पुत्र की जीवन शैली पसंद नहीं आई थी। यदि उनका पुत्र उनके जीवित रहते उनका पैतृक व्यवसाय अपना लेता तो वे प्रसन्न मन विदा लेते पर ऐसा नहीं होना था। लगभग यही बात हम श्री अरविंद घोष के जीवन में देखते हैं। बच्चे की आई. सी. एस. पास करा के भारत में उच्च नौकरी प्राप्त कर देखने का डॉ. कृष्णघन घोष का खूब मन था। पर आई. पी. एस. की परीक्षा के पूर्व बी. ए. स्कॉलरशिप के साथ प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर पास करने वाले अरविंद उस समय इंग्लैंड में मैजिनी, जोन ऑफ आर्क से प्रभावित थे व स्वतंत्रता के लिए आतुर भारतीयों की एक समिति “इंडियन मजलिस” के सचिव बन गए थे। आई. सी. एस. परीक्षा पास करने के बाद वे वूलविच जाकर घुड़सवारी का अंतिम टेस्ट देने के बजाय समधर्मी विचार वाले मित्रों के साथ घूमने निकल गए। मात्र इसी वजह से एक बुद्धिमान काला अँग्रेज भारत पर शासन न करने पाए, यह उनके आँग्ल शिक्षक को गवारा न हुआ व उसने पूरा प्रयास किया कि अरविंद घोष अपनी गलती कबूल कर किसी तरह डिग्री ले ले। पर अरविंद घोष को इस शिक्षा की तुलना में संस्कारों को प्रधानता देने वाली विधा का महत्व समझ में आ चुका था व वे वैसे ही सन् 1892 में अपने देश लौट आए। आते ही पता चला कि मार्ग में संभावित दुर्घटना की गलत खबर सुनकर हृदयाघात से उनके पिता चल बसे हैं व मात्र बूढ़ी माँ उनके पास है जो उन्हें देख पाने में असमर्थ है।

जो पिता अपने बच्चों को पाश्चात्य शिक्षा में प्रवीण बनाकर भारतीयता के प्रभाव से वंचित रखना चाहता था। वह अपने बच्चे को विदेश से लौटा देख न पाया। यदि वह जीवित रहता तो संभवतः पाता कि उनका बेटा विदेश जाकर एक निरासक्त कर्मयोगी, एक निस्पृह स्वतंत्रता सेनानी के रूप में विकसित होकर लौटा है। यह सब कैसे हो पाया, इस पर अरविंद पर जीवनी लिखने वाले विद्वान लेखक लिखते हैं कि बाह्य जगत में दबावों के बावजूद अरविंद के अंदर के संस्कार प्रबल थे व उन्हीं की प्रेरणा से वे एक ऐसे सशक्त व्यक्तित्व के रूप में स्वयं को गढ़ते चले गए। पाश्चात्य वातावरण में उसके अनुरूप न ढलकर स्वयं को अपनी मूलभूत संस्कार निधि मुमुक्षत्व के अनुरूप ढाला व साथ ही मातृभूमि के प्रति अपना प्रेम भी जिन्दा रखा।

पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य भी पिता के देहावसान के पूर्व से ही अपना राष्ट्र प्रेम जता चुके थे। जमींदारी प्रथा के खिलाफ संघर्ष वे तब कर रहे थे जब स्वयं उनके पिता हजारों बीघा जमीन के मालिक एक जागीरदार थे। गाँव के हाट-बाजारों में जाकर पर्चे बाँटना व अँग्रेजी शासन तथा उनका साथ देने वालों के विरुद्ध आक्रोश जन-जन तक पहुँचाने के लिए नमक आँदोलन से लेकर जेल भरो आँदोलन में सम्मिलित होना यह सब कार्य उनने 11 वर्ष की आयु से चौबीस वर्ष की आयु तक किया। जहाँ अरविंद बड़ौद महाराज के सचिव बने लेख लिख रहे थे “शेक ऑफ दि ब्रिटिश योक” (अँग्रेजी सत्ता के जुए को उखाड़ फेंको), वहीं पूज्य गुरुदेव आगरा जिले के एक स्वतंत्रता सेनानी के नाते “सैनिक” पत्र के सम्पादन में श्री कृष्ण दत्त पालीवाल जी का सहयोग कर रहे थे। जहाँ अरविंद कलकत्ता में बमकाण्ड में गिरफ्तार होकर अपनी सुनवाई की प्रतीक्षा के साथ साथ लाखों युवकों में क्रूर शासन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ मन्यु पैदा कर रहे थे, वहाँ पूज्य गुरुदेव भगतसिंह को फाँसी लगने पर मौन न रहकर सारे आगरा जिले में क्रान्ति की एक आग मचाते देखे जाते हैं।

एक विलक्षण साम्य है महर्षि अरविंद एवं युग ऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवनक्रम में। महर्षि अरविंद अड़तीस वर्ष की आयु में (सन् 1910 में) जन-जन की मुक्ति के लिए एक समग्र योग दर्शन की खोज करने पांडिचेरी चल देते हैं व एकाँकी जीवन क्रम अपना लेते हैं ताकि परोक्षजगत को अपनी तपश्चर्या से अनुकूल बना सकें। ज्ञानयोग का आश्रय लेकर वे अतिचेतन सत्ता के धरती पर अवतरण की, स्वर्णिम भारत के पुनरोदय की बात कहते हैं। वहीं पूज्य गुरुदेव भक्तियोग-ज्ञान-योग कर्मयोग के समन्वित स्वरूप के आधार पर साँस्कृतिक बौद्धिक-नैतिक क्राँति का, विचारक्रान्ति का, तथा इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष करते हैं। महर्षि अरविंद को दैवी चेतनसत्ता सतत् प्रेरणा देती रहती है तथा पूज्य गुरुदेव को उनकी हिमालय वासी परोक्ष मार्गदर्शक सत्ता जो सतत् उनके पास आती, अपने पास बुलाती है, उन्हें पग-पग सिखाती है। जहाँ अरविंद को महर्षि अगस्त्य की तपःस्थली वेदपुरी (अब पांडिचेरी) में जाकर मौन साधना करने की दैवी प्रेरणा मिलती है, वहाँ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी को पहले महर्षि दुर्वासा की तपःस्थली में मथुरा में। जहाँ गायत्री तपोभूमि विद्यमान है तथा बाद में नवीन सृष्टि के सृजेता महर्षि विश्वामित्र की तपःस्थली सप्त सरोवर शाँतिकुँज में जाकर तप करने व ऋषि संस्कृति के गायत्री के तत्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने की परोक्ष सत्ता की प्रेरणा मिलती है।

यह संयोगमात्र नहीं है कि अध्यात्म क्षेत्र के दो प्रचण्ड तपस्वी जिनका तुलनात्मक अध्ययन अति संक्षेप में ऊपर प्रस्तुत किया गया, भारत में ही जन्में एक ही उद्देश्य को लेकर तपे तथा जिनके प्रारंभिक जीवन से अंत तक संस्कारों की प्रबलता ही प्रमुख भूमिका निभाती रही। महामानवों की यही रीति-नीति होती है। वे धारा के प्रवाह के विपरीत चलते हुए स्वयं पार होते हैं अपनी नाव में असंख्यों को पार करते हैं। वे मल्लाह की भूमिका निभाते देखे जाते हैं। हम सब के जीवन का परम सौभाग्य कि हमारी जीवन नौका को उस काफिले से जुड़ने का अवसर मिला जो श्रेष्ठ पथ पर अग्रगमन कर रह था। हम नहीं जानते कि हमने अपने संस्कारों को दैवी सत्ता की प्रेरणा से स्वयं पहचाना व प्रवाह से प्रज्ञा अभियान से जुड़ गए अथवा अनुभूतियों से लेकर उपलब्धियों के रूप में अनेकानेक प्रकार से झकझोर कर हमें अपनी दैवी अंशधारी सत्ता का बोध कराके परम पूज्य गुरुदेव ने अपने साथ जोड़ा, किन्तु यह सत्य है कि जो मार्ग जब मिल गया है, वह मनुष्य जीवन के दुर्लभतम सुयोगों में एक है।

कुसंस्कारों के वशीभूत हो अनेक व्यक्ति कुपथगामी होते-भटकते देखे जाते हैं। नर पशु नर पामर, नर पिशाच की योनि में नारकीय जीवन जीते इसी चोले में सब कुछ भुगतते देखे जाते हैं। ऐसे में कोई अपने संस्कारों को पहचान ले व श्रेष्ठता से स्वयं को जोड़ ले तो वह कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है, यह हम पूज्य गुरुदेव के जीवन वृत्त का अवलोकन कर अपने सौभाग्य को सराहते हुए भली भाँति समझ सकते हैं।


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