भीतर की अमीरी सबसे भली

June 1991

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यह दुनिया बड़ी मायावी है। इसमें जो सत्य है, वह असत्य भासता है और जो मिथ्या है, अवास्तविक है, उसकी प्रतीती वास्तविक जैसी होती है। आकाश और समुद्र होते रंगहीन हैं, पर हमें नीले दीखते हैं। पृथ्वी गोल है, पर लगती चपटी है, वह परिभ्रमणरत है, किन्तु आँखें एवं अन्य इन्द्रियाँ उसे स्थिर अनुभव करती हैं और सूर्य, जो कि स्थिर है, हमें गतिमान प्रतीत होता है।

यह विपर्यय न सिर्फ पदार्थ जगत पर लागू होता है, वरन् मानवी जीवन के विभिन्न पक्षों से भी अक्षरशः इसकी संगति बैठ जाती है। धूर्त, ठग, चोर, बेईमान स्तर के लोग प्रायः सफल होते, धनवान बनते, प्रतिष्ठ पाते दिखाई पड़ते हैं और सज्जन-साधु पुरुष असफल होते, विपन्न बनते देखे जाते हैं। नकल करने वाला विद्यार्थी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होता है और अच्छाई का अनुकरण करने वाले फेल होते दीख पड़ते हैं। बुराई में अच्छाई और अच्छाई में बुराई प्रतीत होती है। सुख में दुःख और दुःख में सुख की अनुभूति होती है।

आखिर ऐसा क्यों? प्रथम बात तो यह कि बुराई कभी सफल नहीं होती, मात्र सफल होती प्रतीत हो सकती है और भलाई सर्वदा ही सफल होती है, केवल असफल होती भासती है। यदि फिर भी उथलापन दिखाई पड़े तो यही समझा जाना चाहिए कि कहीं न कहीं कोई भ्रान्ति अवश्य है-चाहे वह परिभाषा संबंधी हो या मान्यता संबंधी पर है अवश्य।

दूसरी, यह कि हर व्यक्ति का अपना एक पृथक् नजरिया होता है। किसी वस्तु को देखने का ढंग किसी का कुछ हो सकता है और किसी का कुछ अर्थात् एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। यह भी सत्य है कि जो कुछ भी हम देखते हैं, वह विशुद्धतः हमारा अपना दृष्टिकोण होता है। यदि हमें कोई अवाँछनीय व्यक्ति सफल होता दिखाई पड़ता है, तो इसका ही अर्थ है कि हम भी वैसी ही सस्ती सफलता चाहते हैं और ऐसी स्थिति में सत्पुरुष हमें निश्चय ही असफल होते प्रतीत होंगे, क्योंकि सफलता की हमारी परिभाषा पूर्व निश्चित है, हमने धारणा बना ली है कि हमें अमुक प्रकार की ही सफलता चाहिए। दुर्जनों की समृद्धि में हमें इसीलिए सफलता प्रतीत होती है, क्योंकि वही हमारी अपनी आकाँक्षा बन जाती है। गलत तरीके वही हमारी अपनी आकांक्षा बन जाती है। गलत तरीके से उपार्जित उसकी सम्पत्ति, विशाल कोठी, झूठी वाहवाही सब कुछ मन-ही-मन हम चाहने लगते हैं। इसी कारण से मन भी यह कहने लगता है कि गलत व्यक्ति फल-फूल रहा है, आगे बढ़ रहा है, सफल हो रहा है, जबकि सच्चा व्यक्ति विफल और विपन्न बनता दृष्टिगोचर होता है। यह दृष्टिकोण की ही तो भ्रान्ति है। यदि सचमुच हम सन्त हैं, तो अन्यों के जीवन का दुःख भी दिखाई पड़ना चाहिए कि कितनी पीड़ा में वह अपनी जिन्दगी गुजार रहे हैं। कई के पास महल, नौकर-चाकर, सुविधा-साधन सब कुछ हैं, फिर भी उनके मन में शान्ति नहीं, अशान्त हैं। रात की नींद उड़ी हुई है और दिन का चैन गायब है। रात में नींद इसलिए नहीं आती, क्योंकि उन्हें डर है कि चतुराई से कमायी सम्पत्ति कोई चोर चुरा न ले जाय और दिन का चैन इस ऊहापोह में बीत जाता है कि अब आगे और सम्पत्ति कैसे जोड़ी जाय? यह पीड़ा उनकी बाहरी चमक-दमक से कहीं विशाल है। यह विशाल है सन्तों की उस कष्ट-कठिनाई व गरीबी से जो उनके स्वयं के द्वारा ओढ़ी जाती है। यही अन्तर असाधुओं को नहीं पड़ता, जबकि साधु इससे भली भाँति परिचित होते हैं और इसमें निहित खोखलेपन को जानते हैं। अतः स्वयं को ही सफल सुखी मानते और अन्यों को भी इसी की सलाह देते हैं।

विवेकानन्द जब पहली बार सितम्बर, 1893 में विश्व धर्म सभा को संबोधित करने अमेरिका पहुँचे तो उनके जीर्ण-शीर्ण ढीले वस्त्रों को देखकर एक अमेरिकी ने फिकरा कसा-”बेचारे भारतीय बड़े गरीब होते हैं! “यही तो हमारे और आपके दृष्टिकोण में सबसे बड़ा अन्तर है। हम भारतीय फकीरी में भी अमीरी का अहसास करते हैं और आप अमीरी में भी फकीर बने रहते हैं। आप उसे धन सम्पत्ति, ऐशोआराम में ढूंढ़ते हैं जबकि वह तो अन्दर की सम्पत्ति है। आप उसे बाहर ढूँढ़ते हैं और हम गोताखोर की भाँति अन्दर तलाशते हैं।”

सचमुच, भीतर की अमीरी बाहर की ठाटबाट से कहीं अधिक बड़ी और सुखदायी है। जब हम उसे बाहर ढूँढ़ते और स्वयं भी प्राप्त करने की कल्पना करते हैं तो निश्चय ही उन लोगों की श्रेणी में सम्मिलित हो जाते हैं, जो असाधु हैं, क्योंकि कल्पना क्रिया की पूर्व भूमिका होती है। कल्पना से चिन्तन और चिन्तन से क्रिया बन पड़ती है। अतः अनीति युक्त गतिविधियों में प्रत्यक्ष रूप से संलग्न न होकर भी उसकी कल्पना कर हम मानसिक रूप से अपराध तो कर ही बैठते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बुराई की नियति सिर्फ विफलता और दुःख ही है। बुराई सदा हारती है।

सिकन्दर विश्व-विजय का सपना लेकर आगे बढ़ता हुआ जब नील नदी के निकट आया, तो उसे कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। जगह-जगह अवरोध खड़े थे, पर उन्हें पार कर आगे बढ़ा तो स्वागत द्वार खड़ा था। उसके स्वागत में लोग उत्सव मनाने की तैयारी कर रहे थे। सिकन्दर हैरान था कि अभी-अभी कड़ा मुकाबला हुआ और यहाँ लड़ने की जगह अब दुश्मन के स्वागत की तैयारी! वह भौंचक्का था। किसी तरह दिन बीता रात आयी। रात्रि भोज का आयोजन हुआ। सिकन्दर के सामने सोने की थाली में सोने की रोटियाँ और हीरे-मोती की सब्जियाँ रखी गई। उन्हें देखते ही वह आगबबूला हुआ, कहा-”मूढ़! सोने की रोटियाँ खाने की नहीं दिखाने की होती हैं, बड़प्पन जताने की होती हैं। मैं उन्हें ले तो जाऊँगा अवश्य, अन्यथा इतनी दूर आता ही क्यों, पर अभी मुझे भूख लगी है, आटे की रोटियाँ ला।”

सामने गाँव का वयोवृद्ध मुखिया खड़ा था, कहा-”यदि आटे की ही रोटियाँ खानी थीं, तो घर पर भी मिल जातीं। इतना कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता ही क्या थी। मैंने तो समझा शायद सोने की रोटियों की तलाश है, इसलिए यह थाल सजाया था।” सिकन्दर को मुखिया के शब्दों के पीछे-छिपे भाव समझ में आ गये।

हमारी स्थिति भी सिकन्दरों जैसी है। हम सोने के पीछे, धन के पीछे, बाह्य आकर्षणों के पीछे भागते हैं, उसमें हमें सम्पन्नता और सफलता दिखाई पड़ती है, पर हम उनके अन्दर की भूख को, अशाँति को, पीड़ा को नहीं देख पाते हैं। यदि दिखाई पड़ती, तो हम उन्हें बड़ा और सफल नहीं मानते।

अब यदि बड़प्पन और सफलता, धन और अधिकार की अधिकाधिक प्राप्ति में नहीं है तो समृद्ध और सफल किसे माना जाय? इसका उत्तर मूर्धन्य मनीषी राल्फ वाल्डो ट्राइन अपनी पुस्तक “इन ट्यून विद दि इनफाइनाइट” में देते हैं। वे कहते हैं कि “यदि सम्पत्ति को सफलता और समृद्धि का कारण माना जाय, तो यह कहना अनुचित न होगा कि ऐसे लोग भगवान के अधिक निकटस्थ होते हैं, पर व्यवहार में विरोधाभास दिखाई पड़ता है। शान्ति की तलाश में सबसे अधिक भटकते ऐसे लोग ही दिखाई पड़ते हैं। यदि परमसत्ता की निकटता होती, तो उनमें शान्ति भी होती, क्योंकि जहाँ शान्ति और संतोष है, वहीं उस सत्ता की सघनता और प्रकाश अधिक है, “पर प्रत्यक्ष में ऐसा नहीं दीख पड़ता तो फिर सम्पन्न किसे माना जाय?” वे कहते हैं कि सच्ची सम्पन्नता व्यक्तित्व की होती है। चरित्र, चिन्तन, और व्यवहार की उत्कृष्टता ही वह सम्पदा है, जिसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही सही अर्थों में सफल और महान कहा जा सकता है। यही सच्ची सम्पत्ति है। इसे पाने वाला ही जीवन में शान्ति और संतोष को उपलब्ध कर पाता है।”

यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि जब प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न तथ्य में इतना बड़ा अन्तर है, तो यह उलटबाँसियाँ क्यों? जो सही है, वह गलत और जो गलत है, वह सही क्यों प्रतीत होता है अथवा गलत काम में सुख का और सही में दुःख का अनुभव क्यों होता है?

इसका आधारभूत कारण एक ही हो सकता है-हमारी बहिरंग दृष्टि। हम बाहर की उपलब्धि को ही शाश्वत और सच्ची मान लेते हैं, जबकि बात ऐसी है नहीं। सनातन तो आन्तरिक विभूतियाँ हैं। सच्ची सफलता, समृद्धि और शान्ति इसी में है। यदि हम आन्तरिक दृष्टि विकसित कर सकें, तो यह विपर्यय भी समाप्त हो जायेगा। फिर जो हम देखेंगे, वह सनातन सत्य होगा।


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