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June 1991

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जो प्रामाणिक है उन्हीं का विश्वास करो। जो अनेक कसौटियों का विश्वास करे। जो अनेक कसौटियों पर खरे उतरें मात्र उन्हीं से घनिष्ठता बनाओ। हर अवसर का मूल्याँकन करो और उसके सदुपयोग की बात सोचो। प्रगति के यही तौर तरीके हैं।

मन की घुटन मन में छिपाये रहने की अपेक्षा यह अच्छा है कि सफाई और धुलाई का अवसर मिले यह कार्य बिना विवाद खड़ा किये और सीधा नाम लिए, घुमा-फिरा कर इस ढंग से कहना चाहिए जिससे प्रतिष्ठ का प्रश्न न बने। न तो दूसरा ही अपनी तौहीन समझे और न अपने को ही अपराधी के कटघरे में खड़ा होना पड़े।

मन मुटाव उत्पन्न होने की स्थिति में सम्बन्ध तोड़ लेने या बिगाड़ लेने की अपेक्षा उन्हें सुधार लेने में अधिक बुद्धिमत्ता है। डोरी तोड़ देने पर एक प्रकार की परोक्ष शत्रुता का आरम्भ हो जाता है। ऐसी दशा में कोई हथियार न चले तो कम से कम बदनामी का सिलसिला तो चल ही पड़ता है। जिनके साथ देर तक अच्छे सम्बन्ध रहे हों, उन्हीं की ओर से यदि लाँछन लगाये जायें तो उन पर सहज विश्वास होता है। बदनामी चाहे छोटी ही क्यों न हो व्यक्ति के मूल्याँकन में कटौती करती है। अच्छा यही कि तनाव बढ़ने से पूर्व उसे सुधार लिया जाय।

कर्त्तव्य पालन आवश्यक है। इस कारण यदि सम्बन्ध टूटता हो तो टूट भी जाने देना चाहिए। अनाचार करने के लिए चाहे मित्र द्वारा कहा जाये या स्वामी द्वारा, उसमें अपनी असमर्थता, अयोग्यता व्यक्त करते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर देना चाहिए कि वह चतुरता का कार्य किसी चतुर के जिम्मे सौंपा जाये। ऐसे प्रसंगों में यदि अपने को मूर्ख समझा जाने लगे तो उस लाँछन को खुशी-खुशी सह लेना चाहिए और कम दर्जे का, कम लाभ का काम स्वीकार कर लेना चाहिए।

दूसरों ने क्या समझा, क्या माना यह उनकी अपनी समझ और इच्छा के ऊपर निर्भर है। अपना गौरव तो इसी में है कि कर्तव्य का निर्वाह न्यायोचित रीति से करते रहा जाये। दूसरा अपनी जिम्मेदारी में चूक करता है तो उसका अनुकरण हमें क्यों करना चाहिए?

मित्र, कुटुम्बी, सम्बन्धी, स्वामी से भी बढ़कर अपनी अन्तरात्मा है। किसी को प्रसन्न करने के लिए हमें अपने आप को धोखा नहीं देना चाहिए। आत्मधिक्कार, से आत्म प्रताड़ना से तो हमें हर हालत में बचना ही चाहिए। ऐसे लाभ को छोड़ देना चाहिए जिससे कर्तव्य के प्रति विमुख होना पड़ता हो।

निष्ठापूर्वक-धैर्यपूर्वक यदि कर्तव्य पालन करते रहा जाय तो गलतफहमी अधिक दिन नहीं ठहर सकती। भ्रम अधिक समय टिका नहीं रहता। वस्तु स्थिति प्रकट होकर रहती है। इस विश्वास के साथ यदि ईमानदारी और जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपने निश्चय पर दृढ़तापूर्वक जमे रहा जाय तो अन्त में सत्य की ही विजय होती है। सूर्य पर बदली की कालिमा देर तक टिकी नहीं रह सकती। हवा का प्रवाह उसे अब नहीं तो तब उड़ा ही देता है।


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