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June 1991

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वंश और वेष के कारण न कोई बड़ा होता है, न छोटा। सब मनुष्य भगवान ने एक जैसे पैदा किये हैं। वे अपनी चारित्रिक श्रेष्ठता-निकृष्टता से ही ऊँचे-नीचे बनते हैं।

साधारणतया मनुष्य साठ-सत्तर वर्ष तक जी लेता है। कई तो इससे भी बढ़ कर सौ तक जा पहुँचते हैं। पर देखना यह है कि उस लम्बी अवधि को किस प्रकार जिया गया? उसमें क्या उपलब्धियाँ हस्तगत की गयीं? धन दौलत की रखवाली के लिए पहरेदार नियुक्त किये जाते हैं ताकि चोर कुछ चुराने न पाये? पर आश्चर्य की बात यह है कि हम समय को सम्पदा नहीं समझते और उसकी रखवाली आप करने की सावधानी तक नहीं बरतते। सर्दी-गर्मी से कोई हानि न पहुँचने पाये इसके लिए कपड़े पहनते हैं। छाता और जूता आदि का प्रबन्ध करते हैं किन्तु यह भूल जाते हैं कि समय की बरबादी की हानि इतनी बड़ी है जिससे समूचा जीवन ही निरर्थक बनकर रह जाता है।

यह सोचना ठीक नहीं कि जितना समय मौज-मजा करने की मस्ती में गँवाया, जितनी आयु खेल-खिलवाड़ आवारागर्दी में बीत गयी वही सुख चैन की रही। कार्य व्यस्त लोग तो मजूर की तरह खटते रहते हैं और कैदी की तरह कोल्हू में पिसते हैं। पर यह मान्यता है सर्वथा गलत। इससे अपनी मूल्यवान शक्तियाँ घिसती बरबाद होती रहती हैं। बेकार पड़ा-चाकू जंग खा जाता है और अपनी तीक्ष्णता, उपयोगिता सहज गँवा देता है। चलती मशीनें ठीक रहती हैं, पड़े-पड़े उनका प्रवाह रुक जाता है। नदियाँ बहती न रहें तो उनका रुका हुआ पानी सड़ने लगता है। कलाकारी का कौशल प्रयोग में न आने पर कुछ ही समय में विस्मृत हो जाता है। आलसी पर थकान चढ़ी रहती है जबकि क्रियाशील की स्फूर्ति एवं सक्रियता में कोई आँच नहीं आती।

कौन कितना जिया? इसका हिसाब वर्षों से नहीं लगाया जाना चाहिए वरन् देखा जाना चाहिए कि उसने कितनी तत्परता बरती और उपलब्ध आयुष्य में कितनी सराहनीय तत्परता अपनायी। कई महापुरुष लम्बी आयु न जी सके किन्तु अपनी थोड़ी ही आयु में निरन्तर कार्य संलग्न रहकर इतना काम कर गये कि उन पर शतायुषों को भी निछावर किया जा सकता है।

रामतीर्थ, विवेकानन्द, शंकराचार्य, बीस या तीस से कुछ ही अधिक वर्ष जिये पर उनकी कृतियों को देखते हैं तो पता चलता है कि जितनी आयु लोग ऐसे ही गधा पच्चीसी में गँवा देते हैं, उतने ही समय में उनने तत्परता और तन्मयता बरत कर इतना काम कर दिखाया कि लोग आश्चर्य करते हैं कि इतनी छोटी आयु में इतना अधिक काम किस प्रकार करते बन पड़ा? इस प्रकार आश्चर्य उन्हीं लोगों को होता है जो समय का मूल्य नहीं समझते? और अपनी प्रत्येक घड़ी को योजनाबद्ध निर्णय और प्रयास के साथ कसकर नहीं बाँधते।

समय और काम की संगति बिठाने के लिए प्रतिदिन-दिनचर्या का निर्धारण करना पड़ता है। आज की परिस्थितियों में जो सर्वोत्तम है, जिसे व्यस्त रहकर किया जा सकता है, वह क्या है? जो इसे सोच सकते हैं, इस आधार पर अपना कार्यक्रम बना सकते हैं। साथ ही मुस्तैदी के साथ उस निर्धारण पर गतिशील रह सकते हैं। वे देखते हैं। वे देखते हैं कि कितना काम कर चुके। समय, श्रम और मनोयोग जहाँ इन तीनों का समन्वय हो चले, समझना चाहिए कि प्रगति द्वार खुला और सफलता के निकट जा पहुँचने का महत्वपूर्ण योग बन सका।

जीवन के सुयोग का लाभ उन्हीं को मिलता है जो पशु प्रवृत्तियों से ऊँचे उठकर किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के साथ अपने को जोड़ते हैं। लोकहित जिन्हें सुहाता है और पुण्य-परमार्थ का ध्यान रखते हुए ऐसा कुछ करते हैं जिससे दूसरे लोग प्रेरणा प्राप्त कर सकें और अनुकरण करते हुए किसी सराहनीय दिशाधारा में अग्रगमन कर सकें।

संसार के महामानवों में एक ही विशेषता रही है कि उनने समय का मूल्य समझा और उसका सत्प्रयोजनों में उपयोग किया। यह एक ही सूत्र ऐसा है जिसे अपना लेने के उपरान्त श्रेष्ठताओं, के सद्गुणों के, अनेकानेक द्वार खुलते हैं, समय ही जीवन है। जिसने समय का सदुपयोग किया समझना चाहिए उसने जीवन को धन्य बना लिया।


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