अनुभूतियों को आकार देने का एक तुच्छ सा प्रयास!

June 1991

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कलम की, लेखनी की अपनी सीमाएँ हैं, बंधन हैं। कलम उस सब को लिपिबद्ध नहीं कर सकती जो कुछ भी अनुभूति की परिधि के अंतर्गत आता है। यह लेखनी की सबसे बड़ी मजबूरी है। मन की बात अलग है। भाव संवेदनाओं के तरंगित होने से जो सुखपरक बोध मन को, अन्तःकरण को होता है, उसका स्वाद जिस किसी ने भी चखा है, वह उसे बार-बार पाने को ललक उठता है। कुछ ऐसी विशिष्टता है इस आनन्द में कि चिन्तन चेतना बार-बार इसी भावजगत में विचरण करने चली जाती है व रोम-रोम में पुलकन भर देती है।

ऐसी ही कुछ अनुभव हो रहा है, जब परम पूज्य गुरुदेव के स्थूल शरीर के महाप्रयाण के एक वर्ष पूरा होने पर उनसे संबंधित विभिन्न प्रसंगों-अनुभूतियों को लिपिबद्ध करने का आग्रह अगणित परिजनों की तरफ से आया है। सब उन प्रसंगों को जानना चाहते हैं, जिन पर कभी स्वयं पूज्यवर ने रोक लगाई थी। जो विषय भाव क्षेत्र का है, इसे शब्दों का आकार यह तूलिका कैसे दे यही सोच-सोच कर मन बार-बार उन्हीं अनुभूतियों में विचरण करने चल पड़ता है। कभी उनका ममत्व याद आता है, कभी उनका पल-पल का साथ। कभी यह याद आता है कि कैसे कभी वे चलकर उनके पास स्वयं आए थे व अपने से उन्हें जोड़ा था। प्रसुप्त संस्कारों की सुध कराके उस दिव्यसत्ता ने किस तरह अनगिनत प्रकार लीलाएँ रचाई थीं ताकि दैवी मिशन से हम जुड़ सकें। बार-बार स्मरण हो आता है कि किस तरह हम अपना अंतःकरण खोलकर उनके समक्ष रख देते थे व वे उसे पढ़ते हुए जीवन जीने का सही मार्गदर्शन देते चले जाते थे। उनसे जुड़ी हर बात याद आती हैं। उस स्थान का स्मरण हो आता है, जहाँ-जहाँ वे रहे, आए गए तथा भूमि के संस्कारों को प्रबल बना गए। किन-किन को स्मरण किया जाय व किन्हें लिपिबद्ध किया जाय, सोच-सोच कर मन असमंजस में पड़ जाता है।

कल्पना जगत में तरंगें उठने लगती हैं। महाप्रयाण किसका? क्या उस दिव्य सत्ता का जो एक शक्ति के रूप में आज से 81 वर्ष पूर्व अवतरित हुई पर कभी उसका अभाव किसी ने अनुभव नहीं किया। जब चाहा सतत् उसकी उपस्थिति का लाभ पा लिया। यही नहीं जब कोई कष्ट या विपत्ति आई उनका स्मरण मात्र करने से वह टल गई, नई दिशा मिल गयी, स्थूल शरीर के ब्रह्मलीन होने के बाद जिन्हें यह असमंजस था कि अब हमारा क्या होगा, कौन हमारी देख−रेख करेगा, उन्हें लगा कि वह सूक्ष्मीकृत सत्ता जो उनके पिता से भी बढ़ कर सतत् उनकी देख−रेख-रखवाली करती थी, उनके और समीप आ गई है। परमपूज्य गुरुदेव ने स्थूलतः जो पंक्तियाँ अंतिम समय में लिखी थीं उनमें सीधा सा आश्वासन था कि “सूक्ष्म व कारण शरीर से और अधिक सक्रिय होने के लिए देह का यह चोला हमें अस्सी वर्ष की आयु में त्यागना होगा ताकि करोड़ों-अरबों व्यक्तियों तक पहुँच सकें पर हर परिजन को यह आश्वस्त करते हैं कि उन्हें अपनी उपस्थिति का आभास और अधिक निकटता से कराते रहेंगे। किसी को भी अनाथ नहीं अनुभव होने देंगे।” कितना सही था यह आश्वासन यह हर स्वजन परिजन अपने मन में टटोल कर, इसका समाधान पा सकता है।

गिनती के अनुसार गायत्री जयन्ती 1991 को पूज्यवर के स्थूल शरीर से महाप्रयाण को एक वर्ष पूरा होने जा रहा है। किन्तु इन तीन सौ पैंसठ दिनों के साढ़े आठ हजार घण्टों के तीन करोड़ से अधिक पलों के हर पल में उनकी उपस्थिति प्रत्यक्ष अनुभूत होती जान पड़ती है। इन पलों को सही अर्थों में परम पूज्य गुरुदेव के निर्धारणों में निमित्त जीवन जीने वालों ने अपने अंदर जो अनुभूति की है, वह निश्चित ही अलौकिक, अनिर्वचनीय, अद्भुत है। इस सबको, इन पंक्तियों के लेखक से वर्णन करने को कहा जाय तो असंभव ही प्रतीत होगा कि वह उन अनुभूतियों को आकार दे सके। किन्तु कभी कभी यह भी अनिवार्य हो जाता है। जब पूज्यवर के महाप्रयाण के पश्चात् अगस्त-सितम्बर 1990 के अखण्ड-ज्योति संयुक्ताँक के रूप में एक स्मृति विशेषाँक प्रकाशित हुआ जब कई स्वजनों की इच्छा थी कि इसमें वह सब पढ़ने को मिले जो वे अपनी गुरुसत्ता के बारे में जानना चाहते थे, जिसका उनने अपने जीवन में अनुभूति रस के रूप में रसास्वादन किया था, पर शब्द रूप में वे एक धरोहर की तरह जिसे अपने पास सुरक्षित रखना चाह रहे थे। इस दृष्टि से स्मृति विशेषाँक से संभवतः उन्हें निराशा मिली होगी क्योंकि उसमें युगपुरुष के विराट रूप के मिशन का विशद वृत्तांत था। लिखा भी वह उसी सत्ता की प्रेरणावश ही गया था। पूज्यवर ने कभी भी अपने जीवन से मिशन को पृथक नहीं समझा। उनका समग्र जीवन रुग्ण, पीड़ित, मानवता को समर्पित एक मिशन था, जिसे उनने युग निर्माण प्रज्ञा अभियान नाम दिया। पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी को सही श्रद्धाँजलि उनके जीवन से गुंथे इस विलक्षण अभियान जिसे सुधीजनों ने “मैन-मेकिंग फिनामिना अथवा ओडिसी” व्यक्ति का नवनिर्माण काया कल्प कर देने वाली प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया है, का समग्र वर्णन किए बिना दी नहीं जा सकती। इसीलिए उस स्मृति अंक के विशेषाँक का महत्व अपनी जगह। इन पंक्तियों के लेखक को उस महासत्ता ने अपने सामने बिठा कर उस विशेषाँक का पूरा प्रारूप 1990 के मई माह में नोट करा दिया था। यह भी बता दिया कि वे स्वयं लेखनी में विराजमान रहेंगे। अतः जो कुछ भी तब लिखा गया, गुरुसत्ता की इच्छाओं के अनुरूप था। उसका स्वाध्याय हर स्वजन के लिए-परिजन के लिए अपनी जगह अनिवार्य है। उसी के माध्यम से नये- सभी व्यक्ति सही अर्थों में पूज्य गुरुदेव को समझ सकेंगे।

जब जून 1991 की अखण्ड-ज्योति पत्रिका को एक विशेषाँक का रूप देने की बात आयी तो उसी ऋषि सत्ता ने प्रेरणा दी कि अब एक वर्ष बाद अंशरूप में वह सब क्रमशः दिया जा सकता है जिसे पढ़ने जानने की अनेकों को ललक रही है। जिसे पढ़कर अगणित व्यक्तियों की शंकाओं का समाधान होगा तथा जिसका स्वाध्याय करने पर अनेकों की आस्थाएँ मजबूत होंगी। यह एक अविस्मरणीय तथ्य है कि “अखण्ड-ज्योति” एक शाश्वत-सनातन विचारधारा है जो परमपूज्य गुरुदेव की प्राण चेतना का साकार रूप है। पुस्तककार कोई जीवनी देने के पूर्व सर्व सामान्य जानकारी योग्य समझे गए संस्मरण पहले “अखण्ड-ज्योति” के विचार प्रवाह के रूप में ही दिये जायें, यही प्रेरणा शक्ति स्वरूप वंदनीया माताजी ने दी। वंदनीया माताजी जिनका जीवन पूज्यवर के जीवन से अविभाज्य है, सतत् पाण्डिचेरी की श्री माँ की तरह कहती रही हैं-”विदाउट हिम आय एक्जिस्ट नाट, विदाउट मी ही इज अनमेनीफेस्ट” (उनके बिना मेरा अस्तित्व नहीं है वह मेरे बिना उनकी कल्पना नहीं हो सकती)। उन्हीं प्रातः स्मरणीया स्नेहसलिला माँ की प्रेरणा से यह अंक श्रद्धा सुमन के रूप में पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित है इस भाव के साथ कि हम कोई पुरुषार्थ नहीं कर रहे आपका काम कर आपका कर्ज चुका रहे हैं। कर्ज इतना अधिक कि जिससे कभी उऋण नहीं हुआ जा सकता। अनुदान इतने अधिक कि जिनका प्रतिदान दे पाने की कल्पना भी असंभव है। अनुभूतियाँ इतनी कि जिन्हें शब्द रूप उन्हीं परिप्रेक्ष्यों में दे पाना नितान्त असंभव कार्य है फिर भी उस गुरुसत्ता के विराट कर्तृत्व को नमन करते हुये पुण्यतोया गंगा में उसी की एक जलधारा से ली गयी एक अंजलि उसी को समर्पित है।


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