प्रतिगामिता नहीं प्रगतिशीलता अपनायें

June 1991

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प्रतिगामिता ओर प्रगतिशीलता के दो पक्ष ऐसे हैं, जिनमें से एक को रात्रि और दूसरी को दिन की उपमा दी जाती है। प्रतिगामिता के रहते विकासशीलता की गुँजाइश नहीं रहती। जो देखते सुनते होते दीख पड़ता है, उसका अनुकरण करते भर बन पड़ता है यह सोचने की आवश्यकता नहीं समझी जाती कि चल रहे ढर्रे में कितना उचित और कितना अनुचित है। क्या अपनाया और क्या छोड़ा जाना चाहिए?

नीर क्षीर विवेक बुद्धि को जाग्रत करने के लिए तर्क और तथ्यों का आश्रय लेने की आवश्यकता पड़ती है। प्रवाह में तो सब कुछ भला-बुरा बहता चला जाता है। उस दिशाधारा में बहने वाले को कुछ सोचने, औचित्य का पक्षधर निर्णय लेने की नये सिरे से आवश्यकता नहीं पड़ती। अंधी भेड़ें भले ही बड़ी संख्या में हों, पर उस झुण्ड की सभी इकाइयाँ एक के पीछे दूसरे के चलते जाने की ही अभ्यस्त होती हैं, भले ही अगली किसी खड्ड में जा गिरे। पिछली उसी का अनुकरण भर कर पाती हैं। उन्हें यह सोचने का न अवसर होता है और न अभ्यास कि ढर्रे को अपनाये रहने में कितना हित है, कितना अनहित?

ऐसी प्रतिभाओं का इन दिनों विशेष रूप से अभाव कही दृष्टिगोचर हो रहा है जो संकीर्ण स्वार्थपरता से आगे की बात सोच सकें। उनके लिए आदर्श के प्रति आस्था रखना और मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने वाली गतिविधियाँ अपनाना बन ही नहीं पड़ रहा है। इस दुर्भिक्ष स्तर के आस्था संकट में उस चेतना क्षेत्र की हरीतिमा का उत्पादन एक प्रकार से रुक ही गया है, जो अपनी सुन्दरता और शीतलता से जन-जन का मन हुलसाती और पुलकित-तरंगित करती थी।

तपते ग्रीष्म में तो भूमि पर बिखरी रेत तक गरम हो जाती है और पैरों को जलाती है, जबकि सामान्य स्थिति में भूमि में लोट-पोट करने पर अति सरस अनुभूति का रसास्वादन होता है। उसी में लोट कर जीवधारियों में अधिकाँश प्राणी अपनी थकान मिटाते और नई शक्ति पाते हैं पर ग्रीष्म का आतप तो बहुत कुछ उलट देता है। वर्षा के दिनों संचित जल राशि तक को भाप बना कर उड़ा देता है और लबालब भरे सरोवरों को सुखा कर उसे, तलहटी तक को झुलसाने वाली गर्मी से विक्षोभकारी बना देता है। इन दिनों ऐसा ही जेठ महीना तप रहा है, जिसमें मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखे रहने वाली शालीनता सूखती और जलती भुनती दिखाई देती है।

इन दिनों जो लोक प्रचलन है, उसमें अवाँछनीयता की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाने की बात को हर विवेकशील स्वीकार करता है। तब उसी मान्यता के अनुरूप दूसरा निष्कर्ष यह निकालना चाहिए कि प्रचलनों का अन्धानुकरण करने में मात्र खतरा ही खतरा है। उलटी दिशा में चलने की अपेक्षा तो यही अधिक उपयुक्त है कि जहाँ के तहाँ खड़ा रहा जाय, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि बन इतना भी नहीं पाता है और तथाकथित “समझदार” लोग भी भेड़ियाधसान में जा घुसते हैं। कई बार भारी भीड़ की धकापेल में अनेकों कमजोर जमीन पर गिर जाते हैं और उमड़े जनसमूह के पैरों तले कुचल कर मर तक जाते हैं। दुर्मति का प्रतिफल दुर्गति के रूप में प्रकट होते, इसी प्रकार देखा जाता है।

छूत की बीमारियाँ जब फैलती हैं, तो संपर्क में आने वाले को भी अपनी लपेट में ले लेती हैं। हैजा, प्लेग, मलेरिया, खुजली जैसी बीमारियाँ प्रायः एक से दूसरे को लगती हैं और अपना विस्तार करती चली जाती हैं। कुप्रचलनों, अन्ध परम्पराओं के संबंध में भी यही बात है। वे सहज ही दुर्बल मन वालों को अपनी ओर घसीट लेते हैं, जबकि बलिष्ठों का सम्वर्धन करने वाले अखाड़े प्रायः खाली पड़े रहते हैं। उसकी ओर आकर्षित होने वाले भी कुछ समय में उदासी-उपेक्षा अपनाकर उस आरंभ किये प्रयास से मुँह मोड़ लेते हैं। इसे विडम्बना ही कहना चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों का पलड़ा भारी रहता है। वे जलकुम्भी और ‘बेशरम बेल’ की तरह कहीं भी फैल पड़ती देखी जाती हैं, जबकि गुलाब जैसे पौधे बढ़ने में बड़े नखरे दिखाते और निरन्तर खाद पानी पाने और रखवाली बरते जाने की अपेक्षा करते हैं।

प्रतिगामिता हर किसी को हर दृष्टि से नीचे ही गिराती और क्रमशः रसातल के गर्त तक पहुँचाती देखी जाती है। जिन्हें यही सुहाती है उनके लिए अति सरल है कि वे अपने चारों ओर छाये हुए आलस्य, प्रमाद, अनाचार, अहंकार, व्यसन, व्यभिचार जैसे दुर्गुणों को अपने चारों ओर बिखरा देखें, उनसे प्रभावित हों और उन्हीं के अनुकरण के लिए सरलतापूर्वक खिसक जायँ। बदले में सर्वतोमुखी विपन्नता से ग्रसित होकर कुढ़ता-कुढ़ाता जीवन जियें। पर जिनका अभ्युदय, उत्कर्ष में उत्साह है, उनके लिए यही उचित है कि अब के न सही, पिछले, निकटवर्ती न सही, दूर के श्रेष्ठ सज्जनों की खोज करें, उनसे प्रेरणा प्राप्त करें और अपनी मानसिकता विनिर्मित करें कि हमें समुन्नत-सुसंस्कृत स्तर का जीवन यापन करना है। दूसरों के सामने अपना आदर्श उपस्थित करना है। यदि प्रेरणा प्रदान करने वाले महामानवों का अभाव दिखाई पड़ता हो तो उसकी पूर्ति के लिए एकाकी चल पड़ने का साहस जुटायें। प्राचीन काल में जिन देवमानवों का बाहुल्य था, उनमें से प्रत्येक को यही करना पड़ा कि दूसरे गये-गुजरों का अनुकरण करने की अपेक्षा उन्होंने स्वयं अपना मार्ग निर्धारित किया। उत्कृष्ट स्तर की आदर्शवादिता को अवलम्बन बनाया, अपने पैरों की क्षमता बढ़ाते हुए अभ्युदय के उच्च शिखर पर जा पहुँचने का लक्ष्य बनाया और उसे पूरा कर दिखाया।

वस्तुतः लगता भर ऐसा है कि प्रगतिशीलता का, आदर्शवादिता मार्ग कठिन है। पर यह मान्यता वस्तुतः एक प्रकार की भ्रान्ति है। जो काम स्वयं नहीं किया है, जिसे करते औरों को नहीं देखा गया है, वही कठिन मालूम पड़ता है, पर जब मस्तिष्क में आदर्शवादी व्यक्तियों की गतिविधियों पर चिन्तन को केन्द्रित किया जाय और वैसी ही रीति-नीति अपनाने के लिए उत्साह उभारा जाय, तो थोड़े से अभ्यास में ही यह अनुभव होने लगता है कि अनौचित्य अपनाने की तुलना में औचित्य, सौम्यता और सज्जनता को व्यवहार में उतरना कहीं अधिक सरल और संभव है। कुटिलता अपनाने वालों की, दुराव करने और दूसरों को कुछ का कुछ बताने दिखाने की बाजीगरी असाधारण रूप से झंझट भरा है। छल-प्रपंच में सफलता उन्हीं को मिलती है, जो धूर्तता की कला में प्रवीण पारंगत हो चुके हैं। सरल सज्जनता का मार्ग तो एक बालक भी अपना सकता है। उसे यथार्थता कह गुजरने में किसी प्रकार के दबाव का अनुभव नहीं करना पड़ता। आदर्शों का परिपालन इसलिए कठिन मालूम पड़ता है कि उन्हें अपने द्वारा या दूसरों के द्वारा प्रयोग में आते नहीं देखा गया। समुद्र किनारे रहने वाले मछुआरों के बच्चे भी अथाह जल राशि के ऊपर बिना किसी हिचक के नावें चलाते और मछली पकड़ने जैसा जोखिम भरा काम बिना किसी झिझक के आजीवन करते रहते हैं। इसमें दीखता भर भयानक दुस्साहस है, पर वास्तविकता यह है कि अभ्यास में उतारने पर कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं।


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