ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर-परमपूज्य गुरुदेव का जीवन दर्शन!

June 1991

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“मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है-” यह मूल मंत्र परमपूज्य गुरुदेव ने जन-जन को दिया व इसके माध्यम से उन्हें पुरुषार्थ में नियोजित कर उनकी भाग्य रेखाएँ ही बदल दीं। यही नहीं, वे कहते रहे “आत्मबल यदि प्रचण्ड हो तो व्यक्ति कितनी ही प्रतिकूलताओं से जूझता हुआ परमात्मबल को आत्मबल का पूरक बनाते हुए अपने भविष्य का स्वयं निर्माण कर सकता है।” दैववाद व भाग्यवाद से ग्रसित समाज में यह एक विलक्षण विचारक्रान्ति थी जिसने अगणित रोतों को हँसा दिया, पुरुषार्थ में नियोजित कर उन्हें जीवन जीने की सही दिशा में चलने की प्रेरणा दी व उनका कायाकल्प कर दिया।

जहाँ परम पूज्य गुरुदेव ने पुरुषार्थ को प्रधानता दी व फलित ज्योतिष के निराशावादी, अकर्मण्य बना देने वाले स्वरूप का जीवन भर खण्डन किया, वहाँ स्वयं उनके जीवन में ज्योतिर्विज्ञान ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उज्ज्वल भविष्य के प्रवक्ता के रूप में वे अखण्ड-ज्योति के प्रकाशन वर्षों से ही सृजनात्मक चिन्तन को बढ़ावा देते आए हैं। स्वयं उनने लिखा है कि अन्तर्ग्रही प्रभावों की वैज्ञानिकता को समझा व दृश्य गणित पर आधारित ज्योतिर्विज्ञान को मान्यता दी जानी चाहिए। सत्प्रेरणा देने वाले व्यक्ति को विधेयात्मक चिन्तन की ओर ले जाने वाले ज्योतिर्विज्ञान के समर्थक होने के नाते उनने गायत्री नगर में देव परिवार बसाने के लिए एक वेधशाला स्थापित की, पंचाँग प्रकाशित कराया तथा यहाँ से जन्म समय के आधार पर श्रेष्ठता की दिशा में चलने का मार्गदर्शन तंत्र चलाया।

यह बात सही है कि एक ही समय में जन्में अगणित व्यक्तियों का भाग्य ग्रहों की स्थिति के आधार पर एक सा निर्धारित नहीं होता व उस आधार पर किया गया मूल्याँकन शाश्वत नहीं माना जाना चाहिए। परम पूज्य गुरुदेव ने ज्योतिर्विज्ञान संबंधी अपनी विवेचनाओं में यही लिखा कि ग्रहों के अन्तर्ग्रही प्रभाव हो सकते हैं परन्तु पुरुषार्थ द्वारा उन प्रभावों को वाँछित मोड़ दे पाना संभव है। ग्रहों की चाल व दशा-दिशा को मनुष्य स्वयं मोड़ व प्रभावित कर सकता है। इसके लिए संकल्प बल व आत्मबल चाहिए। इन दोनों ही ऋद्धि-सिद्धियों ने कैसे स्वयं परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का स्वरूप बनाया व विकासक्रम पर चलते हुए वे अपनी यात्रा को किस तरह उत्कर्ष शिखर तक ले जा सके, इसके लिए उनकी ही जन्म कुण्डली का ज्योतिर्विज्ञान पर विवेचन किया जाय तो कोई हर्ज नहीं। इससे यह जानकारी मिलती है कि कैसे आत्मबल के धनी विलक्षण योगों का अनुकूलन करते हैं। साथ ही यह भी प्रमाणित होता है कि जटिलतम प्रतिकूलताओं से भी मोर्चा लेकर अपने लिए अपना भाग्य विनिर्मित कर पाना हर किसी के लिए संभव है। लक्ष्यसिद्धि की यात्रा की ज्योतिर्विज्ञान सम्मत व्याख्या यहाँ अखण्ड-ज्योति परिवार के विद्वान डॉ. प्रेम भारती (सारंगपुर, म.प्र.) के एक विशिष्ट अनुसंधान के आधार पर प्रस्तुत है। स्वयं पूज्य गुरुदेव एक प्रकाण्ड ज्योतिर्विद् थे व उनने स्वयं से जुड़ी सारी संभावनाओं का अध्ययन कर अपना भाग्य स्वयं अपने हाथों विनिर्मित किया था, वह इस अध्ययन से प्रतिपादित होता है। पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी की जन्म कुण्डली इस प्रकार स्वीकृत की गयी है।

अंतरंग जीवन की घटनाओं की जानकारी लेने के लिए चन्द्रकुण्डली देखी जाती है जो इस प्रकार स्वीकृत मानी गयी है।

कुण्डली परीक्षण संबंधी जानकारी हेतु जिन तथ्यों की दृष्टि में रखना पड़ता है वे हैं प्रत्येक भाव और उसकी राशि, भाव का स्वामी और उसकी प्रकृति, भावेष की स्थिति व उसका अन्य ग्रहों से संबंध, भाव में स्थित ग्रह, भाव पर अन्य ग्रहों की दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्यों पर ही प्रकाश डाला जा रहा है!

प्रथम भाव को जन्म लग्न भी कहते हैं। इस भाव से शारीरिक स्वास्थ्य, संकल्प शक्ति, पूर्वकर्मों की स्थिति आदि का अध्ययन किया जाता है। पूज्य गुरुदेव के लग्न में तुला राशि है। जिसका स्वामी शुक्र एकादश भाव में स्थित है। इसी लग्न में गुरु व केतु भी हैं, जिन पर शनि व राहू ग्रहों की पूर्ण दृष्टि पड़ रही है। अब तुला लग्न एक श्रेष्ठतम लग्न है तथा शुक्र के बलवान होने पर व्यक्ति को सत्यप्रिय धर्मनिष्ठ व संगठन का स्वामी बनाता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। वायु प्रधान राशि विचार क्राँति से जुड़ी हुई है, विशेष कर जब तुला के साथ शुक्र व मिथुन का स्वामी बुध एकादश स्थान में हों और दोनों पंचम भाव को देख रहे हों। ऐसे महामानव स्थायी, नैतिक व धार्मिक क्रान्ति लाने वाले होते हैं यथा महात्मा गाँधी तुलसीदास, महर्षि रमण एवं ईसामसीह। इन सबको अपने-अपने स्तर में क्रान्तिकारी प्रवाह विनिर्मित करने में अपार सफलता मिली। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पूज्य गुरुदेव की व ईसामसीह की जन्म कुण्डली में एक विचित्र साम्य है। ईसामसीह की कुण्डली में, जो नीचे दी जा रही है लग्नाधिपति शुक्र पर गुरु तथा चंद्र का शुभ प्रभाव है जो चतुर्थ भाव (जनता) को लाभान्वित कर रहा है। ऐसे व्यक्ति ममत्व द्वारा करोड़ों का संगठन खड़ा कर लेते हैं।

पूज्य गुरुदेव की कुण्डली में भी चतुर्थांश पर गुरु की लग्न में, बैठ कर दृष्टि की गई है। वस्तुतः लग्न में स्थित गुरु का विरोधी भी सम्मान करते हैं व ऐसे महामानव सब जगह आदर पाते हैं। साधना की दृष्टि से भी यह योग सर्वश्रेष्ठतम है।

पूज्य गुरुदेव की कुण्डली में द्वितीय भाव में वृश्चिक राशि है, जिसका स्वामी मंगल है। वाणी विद्या, साधन, शक्ति व संगठन शक्ति की दृष्टि से अत्यधिक संपन्नता इससे परिलक्षित होती है। ऐसे व्यक्ति होते तो खाली हाथ हैं पर अपनी साधना शक्ति के बलबूते करोड़ों-अरबों की योजनाएँ चलाते हैं व सफल होते हैं। उनके इशारे पर सैकड़ों व्यक्ति दौलत का ढेर लगा देते हैं। युग निर्माण योजना संगठन का आज का विराट रूप देखकर क्या यह सही नहीं लगता?

तृतीय भाव पुरुषार्थ, यात्रा लेखन, चिन्तन, शौर्य व योगाभ्यास से संबंधित है। पूज्य गुरुदेव के तृतीय भाव में धनु राशि है, जिसका स्वामी गुरु लगनस्थ है। गुरु की स्थिति यहाँ हर दृष्टि से शुभ है। ऐसे ग्रह प्रभावों वाले व्यक्ति श्रेष्ठतम लेखक होते हैं। पूज्य गुरुदेव के ही अनुसार “हमारा अभी तक का लिखा साहित्य इतना अधिक है कि शरीर के वजन से तौला जा सके। यह तभी उच्च कोटि का है।” 3200 पुस्तकों के लेखक पूज्यवर पं. श्रीराम शर्माजी के वेदान्त प्रधान लेखन तथा पाखण्डवाद के विरुद्ध सिंहनाद का परिचय गुरु के साथ-साथ तृतीय स्थान पर मंगल एवं राहू की दृष्टि से मिला है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन श्रेष्ठतम स्तर के योगी का होता है। उनके कोई संकल्प अधूरे नहीं रहते।

चतुर्थ भाव जनता का भाव है। इस भाव में पूज्य गुरुदेव की कुण्डली में मकर राशि है, जिसका स्वामी शनि है। यह शनि यहाँ एक विशेष राजयोग बनाता है व गुरुदेव को करोड़ों के हृदय का सम्राट घोषित करता है। आने वाले समय में उनके विचारों के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी युग आने की उद्घोषणा करता है। ऐसे व्यक्ति पैतृक सम्पत्ति का त्याग कर जनहितार्थाय तीर्थों में निवास कर उन स्थानों को युगतीर्थ बना देते हैं। ज्योतिष का एक सिद्धाँत है-”यो यो भावः स्वामी युक्तो दृश्टोवा तस्य तस्यास्ति वृद्धि।” आचार्य वाराह मिहिर के इस कथन के अनुसार जो जो भाव अपने स्वामी द्वारा युक्त अथवा दृष्टि होता है उस उस भाव की वृद्धि समझनी चाहिए। चतुर्थ भाव को शनि के दशम दृष्टि से देखने के कारण उस भाव की शक्ति यहाँ कई गुना बढ़ गई है। इससे पूज्य गुरुदेव की जनता के मध्य अपार लोकप्रियता बढ़ाने वाला योग बनता है।

पंचम भाव की कुँभ राशि, उसके स्वामी शनि की स्थिति, जातक की कल्पना व विचार क्षमता तथा वाणी की प्रभावोत्पादकता की द्योतक है। सात्विक बुद्धि के धनी ऐसे व्यक्ति भावुक, निर्मल-पवित्र विचार वाले होते हैं व इसी नाते से अद्वितीय प्रज्ञा-पुरुष बन जाते हैं। ग्रहों का योग ऐसा है कि मंत्र शक्ति का उनके जीवन में महत्वपूर्ण स्थान हो जाता है। गायत्री मंत्र को जन-जन तक पहुँचाने वाले पूज्यवर पर यह योग पूरी तरह प्रमाणित होता है। उनकी वेद पिता और गायत्री माता की साकार उपासना इन्हीं प्रभावों को पुरुषार्थ द्वारा सहयोगी बना लेने से सिद्धिदायक बनती देखी गयी।

जहाँ पूज्य गुरुदेव की कुण्डली में षष्ठ भाव में मीन राशि के साथ गुरु का होना मंत्र शक्ति की सिद्धि तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अद्वितीय सफलता रूपी महत्वपूर्ण उपलब्धि का परिचायक है, वहाँ सप्तम भाव में मेष राशि के साथ शनि व राहू का होने से जीवन में प्रतिकूलताएँ भी वरदान बन जाती हैं, यदि जातक पुरुषार्थ परायण हो। उनके प्रारंभिक जीवन में पिता का बिछोह, स्वतंत्रता संग्राम में एकाकी संघर्ष, घर वालों के साथ न होने से मात्र अपनी संकल्प शक्ति के सहारे लक्ष्य सिद्धि की यात्रा व फिर पूर्व जन्म की सहयोगिनी वंदनीया माताजी का साथ में मिलकर कार्य करना-यह सब ग्रहों की स्थिति से स्पष्ट होता है।

अष्टम भाव का संबंध अन्वेषण से भी है तथा मृत्यु से भी। अष्टम भाव में वृष राशि का स्वामी शुक्र लग्नेश होकर एकादश भाव में स्थित होने से ऐसे व्यक्ति मनन-चिन्तन करने वाले क्रान्तिदर्शी ऋषि-वैज्ञानिक होते हैं। विज्ञान व अध्यात्म का समन्वय स्थापित करने वाले ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के संस्थापक परम पूज्य गुरुदेव को इस के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। इस विशिष्ट ग्रह स्थिति से इच्छा मृत्यु का वरदान भी प्रमाणित होता है जो दो जून 1990 की (गायत्री जयन्ती की) निर्वाण दिवस की कुण्डली से स्पष्ट हो जाता है।

नवम भाव कुण्डली का त्रिकोण स्थल है व इसमें मिथुन राशि के साथ बुध स्वामी है, जो एकादश स्थान में है। यह पुण्य स्थान धर्म स्थान है। ऐसी सत्ता पर गुरुसत्ता की परोक्षसत्ता की कृपा बनी रहती है। ऐसे व्यक्ति द्वारा करायी या की गयी उपासना-प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। जन्म जन्मान्तरों के संस्कार प्रबल होने के कारण उनकी वाणी या भविष्य कथन पूरी तरह सत्य सिद्ध होते हैं। ऐसे जातक स्वयं आत्मबल संपन्न होते हैं व दैवी कृपा के कारण संपर्क में आने वालों में भी संचार कर देते हैं। पूज्य गुरुदेव के जीवन में सतत् उतरती रही भगवत्कृपा व उनके माध्यम से औरों को वितरित अनुदान उसके परिचायक हैं।

इस दृष्टि से उनकी कुण्डली का रामकृष्ण परमहंस की जन्मकुण्डली के साथ तुलनात्मक अध्ययन बड़ी महत्वपूर्ण समानता बताता है। ज्ञातव्य है कि पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम आचार्य जी का पूर्व जन्म रामकृष्ण परमहंस की जन्मकुण्डली के साथ तुलनात्मक अध्ययन बड़ी महत्वपूर्ण समानता बताता है। ज्ञातव्य है कि पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का पूर्व जन्म रामकृष्ण परमहंस के रूप में हुआ था जैसा कि उनने अपनी आत्मकथा में लिखा है।

दोनों की कुण्डली में चन्द्र, बुध की युति तथा शनि राहू युति में अद्भुत समानता है। यह संयोग अध्यात्म व संन्यास की ओर व्यक्ति को ले जाता है। दोनों ही आत्मवेत्ता व ज्ञानी बने। दोनों कुण्डलियों में अन्नमय कोष व प्राणमय कोश की (बुध तथा शुक्र) समानता है। परमहंस जी की यात्रा मनोमय कोश तक हुई व वही यात्रा पूज्य गुरुदेव के रूप में मनोमय से आनन्दमय कोश तक होती देखी जा सकती है। मंगल मनोमय कोश का, शनि विज्ञानमय कोष तथा गुरु आनंदमय कोश का सूचक है।

एकादश भाव की सिंह राशि है तथा स्वामी सूर्य द्वादश भाव में स्थित होकर धर्म, कर्म, मोक्ष की प्राप्ति जातक को करा रहा है। लग्नेश शुक्र, कर्मेश चन्द्र तथा धर्मेश बुध के यहाँ एकत्र होने से एक विराट जनसमुदाय पूज्य गुरुदेव के साथ चलता रहा है व उन्हें एक विराट संगठन का अधिपति बनाता है। इसी योग से उन्हें अपार धन की प्राप्ति हुई जो उनने “बोया-काटा” के सिद्धान्त पर समाज रूपी खेत में पुनः लगाया व संगठन खड़ा किया। ऐसे जातकों का बुध के स्थान से अगली राशि में सूर्य के होने से आशीर्वाद शत प्रतिशत फलीभूत होता है। वे जिसे माध्यम बना जाते हैं, उसमें भी यही शक्ति आ जाती है।

द्वादश भाव आध्यात्मिक उन्नति एवं मोक्ष का द्वार है। यहाँ पूज्य गुरुदेव की कन्या राशि के साथ सूर्य स्थित है। अपूर्व स्मरण शक्ति, स्वाध्यायशीलता, आत्मीय जनों पर ममत्व की वर्षा तथा धर्म एवं कर्म द्वारा मोक्ष की प्राप्ति का संकेत इस विलक्षण युक्ति से मिलता है जो उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।

इस तरह ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर पूज्य गुरुदेव का जीवन एक चमत्कारी सत्य का उद्घाटन करता है कि ग्रहों के प्रभाव के साथ पुरुषार्थ के जुड़ जाने पर व्यक्ति अपनी विकास यात्रा को चरम उत्कर्ष तक पहुंचा सकता है। दृश्य गणित के आधार पर खगोल विज्ञान का अध्ययन यदि किया जाय तो पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष जीवन की पृष्ठ भूमि में परोक्ष प्रभाव कार्य करता देखा जाता है जिसका उनने स्वयं अध्ययन कर उसे वाँछित प्रयोजनों के लिए नियोजित कर लिया।

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन दर्शन का अध्ययन यह बताता है कि कितनी ही प्रतिकूलताएँ क्यों न हों, व्यक्ति यदि अध्यात्म तत्वदर्शन को हृदयंगम कर उसे जीवन में सही मायने में उतारे तो वह महामानव, युग ऋषि, अवतार स्तर तक अपना विकास करने में समर्थ है। यह संभावना सब में विद्यमान है। आत्मबल का उपार्जन ही इस सृष्टि का सर्वोच्च पुरुषार्थ है। यदि व्यक्ति को यह मिल जाय तो उससे वह ग्रहों के दुष्प्रभाव को टालते हुये अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बन सकता है। गायत्री मंत्र की सिद्धि प्राप्त कर पूज्य गुरुदेव ने “ब्रह्मवर्चस” अर्थात् आत्मबल का ही उपार्जन निज के जीवन में किया व अपने साथ अनेकानेक को आत्मबल का वरदान उस परमसत्ता से प्रदत्त कराके उनके जीवन को धन्य बना दिया। महापुरुष का जीवन आज मार्गदर्शक बना खुली पुस्तक के रूप में सबसे समक्ष प्रस्तुत है। जो सौभाग्य सब के जीवन में गुरु सत्ता की कृपा बनकर बरसा है, उसे याद रखते हुए यदि उन्हीं के निर्देशों पर चलते रहा जाय तो सभी का जीवन महान बन सकता है।

परम पूज्य गुरुदेव लीला प्रसंग : 4


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