संवेदना का रत्नाकर

June 1991

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होठों ही होठों में वह कुछ बुदबुदाया। शब्द अस्फुट थे, सुने नहीं जा सके। कुछ पल के ठिठके कदम एक दिशा को बढ़ चले। यही दिशा क्यों, उसकी याद में आज हर दिशा बेचैन थी। नगर का प्रत्येक व्यक्ति उसकी ओर आशा भरी नजरों से ताक रहा था। यहाँ तक की लाशों की शून्य-अधखुली बन्द आंखों में उसी की पुकार थी वहीं था जो जीवितों को त्राण अर्धमृतकों को प्राण और मरे हुये को अन्तिम गति दे सकता था, दे भी रहा था। यह भिक्षु था तथागत का अनुयायी, करुणा उसके जीवन का केन्द्र थी। इन दिनों वह सेवामय हो गया था। संसार से विकृत रहकर अपनी साधना में मग्न रहने वाला था।

इन दिनों वह सेवामय हो गया था। संसार से विरक्त रह कर अपनी साधना में मग्न रहने वाला यह चीवरधारी भिक्षु इस तरह स्वयं को उत्सर्ग कर देगा-किसने सोचा था? किन्तु संवेदना स्वयं में रत्नाकर है-प्रत्यक्ष में भले यह जल लहरों का समूह नृत्य भर लगे। पर समय का मन्दराचल-इसमें से अनेकों गुणों विभूतियों को प्रकट कर सिद्ध करता रहता है। सब कुछ इसमें है-इसी में हैं।

नगर में भयंकर महामारी फैलने से उसकी सेवा स्फूर्त हुई थी। अनवरत बढ़ते महामारी के प्रकोप ने नगर में हाहाकार मचा दिया। जिधर देखो-उधर ही कराहटें सुनाई देती थीं। लोगों में भगदड़ मच गई । किसी को कोई पूछने वाला न था। महामारी ने सारे सम्बन्ध सूत्रों को एक झटके में तोड़कर फेंक दिया था। किसी-किसी मुहल्ले में प्रत्येक व्यक्ति रोग का शिकार बना था और कोई-कोई मुहल्ला एकदम जनशून्य हो गया था। ऐसे में जब सब नगर से जंगल भाग रहे थे, वह जंगल से नगर आया था। घूम-घूम कर लोगों की शुश्रूषा करना, दवा पहुँचाना, पथ्य की व्यवस्था करना यही उसकी दिवस-रात्रिचर्या थी।

वर्षों पूर्व एक बार इस नगर में आया था, लेकिन स्वेच्छा नहीं, राजा के आग्रह पर विवश होकर । तब....., कुछ सोचकर उसने आँख उठाकर ऊपर की ओर देखा, भगवान भास्कर का जरठ रथचक्र पश्चिमी क्षितिज की ओर जा रहा था। सन्ध्या कालीन वायु में उसका पीत चीवर फहरा उठा। जैसे बची हुई रश्मि राशि को तेजी से अपने में समेट लेना चाहता हो। लेकिन उसकी आंखें ने इस सबको देखकर भी नहीं देखा। वे अतीत की चित्रकारी देखने में निमग्न थीं।

उस दिन राजा के यहाँ उत्सव में वासवदत्ता का नृत्य था। अपनी पूरी तैयारी के साथ आयी थी वह। उसकी समूची देह लता किसी कवि द्वारा निबद्ध छन्दोधारा की तरह लहरा रही थी। द्रुत-मन्थर गति अनायास विविध भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त कर रही थी, मानो किसी कुशल चित्रकार द्वारा चित्रित कल्पवल्ली सजीव होकर थिरक उठी हो। उसकी आँखें का कटाक्ष निक्षेप ऐसा था जैसे नील कमलों का चक्रवात चंचल हो उठा हो। पूर्ण शरत्चन्द्र के समान उसका मुख इस तरह घूम रहा था कि जान पड़ता था शत-शत चन्द्र मण्डल ही आरती प्रदीपों की आरक्त माला में गुँथ कर जगर-मगर दीप्ति उत्पन्न कर रहे हों। अद्भुत नृत्य था। ऐसा लगता था, वह छन्दों से बनी है, रागों से ही पल्लवित हुई है, तानों से सँवारी गई है और तालों से कसी गई है। सभी एकाग्र मन्त्रमुग्ध साँस रोके उसके नृत्य का आनन्द ले रहे थे।

नृत्य की समाप्ति के बाद वह उससे मिली थी। उत्सव की समाप्ति पर, उसके आवास पर भी आयी थी वह अनेकों हाव-भाव-शील अश्लील मुद्राओं के साथ आमन्त्रण देने स्वयं को समर्पित करने। “समय पर आऊँगा” यही तीन शब्द निकले थे उसके मुख से..... और वह समय शायद आज आया है तभी उसके कदम इस दिशा की ओर मुड़े हैं। समय जिसने इस महा नगर को महा श्मशान में परिवर्तित कर दिया है। जब उल्लास की हर्ष ध्वनि कराहटों, चीख पुकारों के रुदन में बदल चुकी है। बढ़ते हुए कदम उसे विशाल प्रासाद के सामने ले आये। चारों ओर भयंकर सुनसान था। घर का द्वार भर खुला था, किन्तु दिखाई कोई नहीं दिया। पूरा प्रासाद भाँय-भाँय कर रहा था। एक बत्ती तक नहीं जल रही थीं। भिक्षु को एक पल के लिए लगा कि कदाचित वह कहीं अन्यत्र चली गई है। क्षण भर के लिए ठिठका। मन में आया क्या लौट पड़ना उचित है?

तभी ऊपरी तल्ले से क्षीण कण्ठ के कराहने की ध्वनि उनके कानों में पड़ी। उन शब्दों का अनुसरण करते हुए वह सीढ़ियों पर चढ़ गया और उसके शयन कक्ष तक पहुँच गया। अन्धकार में कुछ भी दिखाई न दिया। फिर उसने निश्चित सूचना पाने के उद्देश्य से आवाज लगाई “कोई है?” उत्तर में अत्यन्त क्षीण कातर ध्वनि सुनाई पड़ी “पानी।” भिक्षु की आँखें भर आयीं। जिस कण्ठ स्वर को सुनने, जिसके दृष्टि निक्षेप को पाने के लिए संभ्राँत श्रेष्ठी गण, स्वयं राजाधिराज, हाथ बाँध पंक्तिबद्ध खड़े रहते थे उसी की यह दशा?, परन्तु शाश्वत को पाए बिना, स्वयं को जाने बगैर किसकी यह दशा नहीं होती। उमड़ी करुणा ने उसके गले को रुद्ध कर दिया। भर्रायी वाणी में बोले “मैं उपगुप्त हूँ देवि। तुम्हारा आमन्त्रण स्वीकार करके आ गया हूँ। चिन्ता न करो अभी सब ठीक हुआ जाता है।” अँधेरे में उसे कोई बरतन नहीं दिखाई दिया न वासवदत्ता का वह मुख ही, जिसे पानी से तर करना था। आँगन में नक्षत्रों के हल्के प्रकाश में एक मिट्टी का घड़ा दिखाई दिया। संयोग से उसमें थोड़ा पानी भी मिल गया। उसने अपना चीवर भिगोया। घर में आकर पुकारा “किधर हो देवि! उपगुप्त आया है।” क्षीण कण्ठ से फिर कराहने की ध्वनि हुई। धीरे-धीरे पैर रखते हुए जिधर से आवाज आई थी, उधर की ओर बढ़ा। हाथ से स्पर्श करके उन्होंने वासवदत्ता के मुख का पता लगाया और फिर उसके अधरों के पास एक हाथ रखकर दूसरे हाथ से चीवर के पानी की कुछ बूंदें गिरा दी। ऐसा जान पड़ा, मानो वासवदत्ता की चेतना कुछ अधिक सजग हुई। कदाचित उसकी आँखें भी खुली। क्षीण कण्ठ से पूछा “कौन है? “ उत्तर मिला, “उपगुप्त हूँ देवि!” उसे जैसे विश्वास न हुआ हो, बोली “कौन भिक्षु उपगुप्त?”

“हाँ देवि, आज मैंने तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार किया। साहस न छोड़ो। सब ठीक हुआ जाता है।” अँधेरे में कुछ दिखाई तो न दिया, परन्तु उपगुप्त को समझने में देर न लगी कि उसकी आँखें से अश्रुधारा बह रही है। वह सुबक-सुबक कर रो रही है। बड़े कष्ट के साथ उसने कहा “अब आए हो भिक्षु जब सौंदर्य नष्ट हो चुका। वह सब कुछ बीत चुका जिसके लिए मैंने तुम्हें आमंत्रित किया था। “ कहकर वह मौन हो गई लगा-अपनी निस्तेज हो रही आँखों से उसे देखने का प्रयास कर रही है।

“बीता नहीं उपज रहा है। नष्ट नहीं हुआ प्रकट हो रहा है। अपने को खो कर ही अपने को पाया जाता है। वही हो रहा है देवि ।” कहते हुए उसने वासवदत्ता के ललाट का स्पर्श किया, बर्फ की तरह ठण्डा मालूम पड़ा। कुछ सोचते हुए वह बोला “ जो सुन्दर है वह शरीर नहीं शरीर तो उसके सौंदर्य का एक लघु अंश प्रकट करके सुन्दर दिखता है। अन्यथा इस चमड़े से लिपटे हड्डियों के ढाँचे में जिसमें विष्ठा, मूत्र, खून, मवाद भरा है, क्या सुन्दरता है? “ कोई उत्तर न मिलने पर भी ऐसा लगा कि इन शब्दों को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण किया जा रहा है।

“सौंदर्य तो सत्य के शिवत्व का है। आत्मा की परम ज्योति का प्रकाश है। जो शरीर की क्रिया प्राण की इच्छा, मन के चिन्तन के माध्यम से प्रकट होता है। किन्तु इसका प्राकट्य वहीं होता है जहाँ शिवत्व हो।” कहकर वह रुक गया।


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