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June 1991

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जिस भी साधना में दुष्प्रवृत्तियाँ तपाई-जलाई जा रही हों ऐसा कोई भी कृत्य तप है।

“ओह!” काला पहाड़ ने अपने होंठ दाँतों से इतनी जोर से दबाए कि उनसे खून की बूंदें छलछला आयीं। क्रोध के अधिकतम आवेश में आँखों से टपाटप आँसू टपकने लगे। पसीने से भीगा शरीर थर थर काँपा कुछ क्षण और स्तम्भित जड़ हो गया। वह पलक तक नहीं गिरा पाया। मूर्ति की तरह स्थिर खड़ा रह गया वह। आँखें अंगारे की तरह जल रही थीं। विष निचोड़े जा रहे नाग के समान फुँकार भरी साँसें छोड़ रहा था-वह।

“शौर्य अन्तरात्मा का गुण है। चित्त की स्वाभाविक प्रक्रिया पर विजय प्राप्त करने पर मिलता है। यह। क्रोध, राग, द्वेष को जीतने का नाम है शौर्य। है तुम में साहस शौर्य पाने का? “ ब्राह्मण श्रेष्ठ के इन शब्दों के बाद इतिहास के पृष्ठ मौन है, यह रहस्योद्घाटन करने के विषय में कि इस घटना के बाद तेरहवीं सदी का वह आतंक “काला पहाड़“ कहाँ चला गया?

कतिपय इतिहास विज्ञ लिखते हैं कि वह चला गया था भीषण-घनघोर जंगलों में तप-तितिक्षा द्वारा स्वयं को बदलने, बचा शौर्य पाने। “स्वभाव विजय शौर्य” उक्ति को चरितार्थ करने।


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