सावित्री के पाँच मुख एवं उनका ज्ञान-विज्ञान

June 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आद्यशक्ति गायत्री का विवेचन-विश्लेषण शास्त्रों में दो रूपों में हुआ है- एक गायत्री दूसरी सावित्री। पुराणों में ब्रह्मा जी की यह दो पत्नियाँ मानी गई हैं। ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि सावित्री के द्वारा प्रकृति की संरचना हुई और गायत्री के द्वारा चेतना के पाँच स्तरों का आविर्भाव हुआ। इन्हें ही मनुष्य के पाँच आवरण, पंचकोश या पाँच लोक भी कहते हैं। ऋद्धि-सिद्धियों के भाण्डागार भी यही हैं।

गायत्री महाशक्ति की उपासना मनुष्य की भावनाओं, आकाँक्षाओं, उमंगों, प्रतिभा तथा प्रज्ञा को उभारती है और सावित्री आयु, प्रजा , कीर्ति धन आदि लौकिक सम्पदाओं को प्रदान करती है, क्योंकि वे सम्पदायें पदार्थ जगत से सम्बन्धित हैं। गायत्री को एकमुखी और सावित्री को पंचमुखी कहा गया है। सावित्री भौतिकी है और गायत्री आत्मिकी। दोनों का अपना-अपना महत्व है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ से सम्पदाएँ अर्जित कर लेता है। दैत्य प्रकृति के व्यक्ति भी अपने पौरुष और चातुर्य के बल बूते रावण की तरह प्रचुर वैभव कमा सके हैं, पर आत्मिक विभूतियों के जागरण में तो मात्र दैवी अनुकंपा ही अपेक्षित रहती है। मनुष्य ज्ञान चेतना के अभाव में सर्व सुविधाओं के रहते हुए भी दुर्बुद्धिवश दुष्प्रवृत्ति अपनाता और विकट परिस्थितियों में पड़ता है। समस्याओं- उलझनों में उलझता है। इसलिए सर्वसाधारण के लिए जन-जन के लिए संध्या वंदन के रूप में नित्य गायत्री उपासना का विधान है। त्रिकाल संध्या न बन पड़े तो उसे एक बार प्रातःकाल तो किसी न किसी रूप में अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए।

सावित्री उपासना कठिन है। उसमें प्राण विद्युत को उस स्तर तक उभारना पड़ता है कि आकाश में कड़कती बिजली को तरह वह इन्द्र वज्र की भूमिका निभा सके। आत्मिकी के क्षेत्र में सावित्री महाशक्ति का आह्वान सूर्य शक्ति के रूप में करना पड़ता है और इस योग्य बनाना पड़ता है कि अन्तराल में छिपी हुई ऋद्धि-सिद्धियाँ इसी काया में प्रकट-हो सकें और साधक को ऋषिकल्प ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी और तपस्वी स्तर का बना सकें।

उसकी उच्चस्तरीय साधना अत्यन्त कठिन है जिसमें ऋषिकल्प तपश्चर्या की भट्ठी में साधक को तपना पड़ता है। इतने पर भी सर्व साधारण को उस पंचमुखी साधना से सर्वथा वंचित नहीं रहना चाहिए। ‘न कुछ से कुछ अच्छा’ की नीति के अनुरूप सामान्य साधकों को साँसारिक जनों को इन पंचमुखों का योगाभ्यास और तपश्चर्या के रूप में न सही, नीति और व्यवहार के रूप में तो अभ्यास करना ही चाहिए। इतना बन पड़े तो भी उससे साँसारिक और आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में विशेष सहायता मिलेगी।

पाँच मुख न मनुष्यों के होते हैं, न देवताओं के यह रहस्यमय संकेत भर हैं। काय कलेवर के साथ जुड़े हुए पंचकोशों को ही पाँच मुख कहा गया है। इनके नाम क्रमशः (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश और (5) आनन्दमय कोश हैं। यह सभी अंतरंग के गुह्य क्षेत्र में तो हैं ही, पर वहाँ तक पहुँच सकना संभव न हो तो इन पाँचों के अनुरूप जीवन नीति तो विनिर्मित की ही जा सकती है।

इन पाँचों कोशों में पाँच प्रकार की विभूतियों का समावेश माना गया है और कहा गया है कि इनमें से एक के भी जाग्रत हो जाने पर मनुष्य असाधारण बन जाता है। सविता की सावित्री शक्ति को आकर्षित करने वाले साधक को सर्वप्रथम अन्नमय कोश को प्रगतिशील सक्रिय बनाने के लिए आहार में सात्विकता का समावेश करना चाहिए। उपनिषदों में कहा भी गया है कि “जैसा अन्न खाते हैं वैसा ही मन बनता है और उसका प्रभाव बुद्धि, भावना, क्रिया एवं समस्त जीवन पर पड़ता है।” इसलिए आत्मिक प्रसंग में उत्साह रखने वालों को अन्न की सात्विकता का परिपालन करते हुए अन्नमय कोश की साधना का निर्वाह करना चाहिए।

निर्वाह प्रयोजनों में काम आने वाले सभी पदार्थ उपनिषदों में अन्न माने गये हैं। यह न्यायपूर्वक, परिश्रमपूर्वक कमाई द्वारा अर्जित होने चाहिए। बेईमानी अनीति के आधार पर उपार्जन से अपना निर्वाह न हो। मुफ्त की, बिना परिश्रम की, उत्तराधिकारी की कमाई पर गुजारा न करें। जिसमें पसीना बहा होगा, जो न्यायोचित होगा, सीमित मात्रा में खाया गया होगा, वह शरीर को निरोग रखेगा और दीर्घ जीवन प्रदान करेगा।

दूसरा है प्राणमय कोश-प्राण अर्थात् साहस, पराक्रम। संसार का प्रचलित प्रवाह आलस्य, प्रमाद, भय, चिन्ता, निराशा, आत्महीनता, उद्दंडता की दिशा में है। अपना साहस ऐसा होना चाहिए कि लोगों की रीति-नीति के पीछे आँखें बंद करके न चालें और जो भी अनुचित हो उसके विरुद्ध संघर्ष करें। कृपणता की जकड़न में न पड़े रहें। उदार बन कर रहें। पुण्य परमार्थ के मार्ग पर चलने में लोगों का जो असहयोग-विरोध रहता है, उसकी परवाह न करें। अन्य कोई साथी न होने पर भी आदर्शवादी गतिविधियों का निर्धारण अपने बलबूते करें। आलस्य-प्रमाद को हावी न होने दें। साहसियों की तरह सन्मार्ग पर एकाकी चल पड़ने की हिम्मत सँजोये रखें, सदा कर्तव्यरत रहें। यह प्राणवान होने का चिन्ह है।

मनोमय कोश की व्यावहारिक जीवन में आस्था इस प्रकार जमानी चाहिए कि मन में कुकल्पनायें उठने ही न पायें। उठें तो उनके विरोध के लिए आदर्शवादी महापुरुषों का चरित्र तथा प्रतिपादन सामने रख कर कुकल्पनाओं से भिड़ा दें और उन्हें पछाड़ दें। मन का संतुलन हर स्थिति में बनाये रहना चाहिए प्रतिकूलताओं के बीच भी आवेशग्रस्त न हों। कठिनाइयों को देख कर भीरुता-निराशा के गर्त में न गिरें। सादा जीवन-उच्च विचार की नीति अपनायें। साँसारिक तृष्णाएँ घटायें और महानता अपनाने की आकाँक्षाएँ पल्लवित करें। मन को विलासिताग्रस्त न होने दें। उसे वासना घृणा अहंता के त्रिविध नारकीय दलदलों से बचायें। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हँसते-हँसाते रहें और हलका-फुलका जीवन जियें।

को अवस्थित रखने के लिए विशेष ज्ञान का-दूरदर्शी विवेकशीलता का अवलम्बन लेना पड़ता है। आमतौर से मनुष्य तात्कालिक लाभ को महत्व देते हैं और उसके लिए दुष्कर्म करने तक पर उतारू हो जाते हैं। इतना नहीं सोच पाते कि इनका परिणाम भविष्य में क्या होगा? दुर्व्यसनी तात्कालिक सुख के खातिर अपना व्यक्तित्व, चरित्र और भविष्य सभी गँवा बैठते हैं, किन्तु जिनकी विवेकबुद्धि सजग है वे जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा का एक-एक कण का सदुपयोग करते हैं। वे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने कि लिए आरंभिक दिनों में लगनशील विद्यार्थी की तरह कठोर परिश्रम करते, सुविधाएं छोड़ते और तात्कालिक शौक-मौज को ठुकरा कर लक्ष्य की ओर यात्रा करते रहते हैं। जिनमें इतनी समझदारी मौजूद है उन्हें विशेष ज्ञान वाले विज्ञानी कहना चाहिए।

पाँचवाँ आनन्दमय कोष है। आनन्दमय जीवन व्यतीत करने का तरीका है परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाना। प्रतिपक्षियों और प्रतिकूलताओं को जीवन में आते जाते रहने वाले उतार चढ़ाव मात्र समझना चाहिए। आशा भरे भविष्य का सपना देखना चाहिए। अपने से पिछड़ों को देख कर भगवान को धन्यवाद देना चाहिए कि सैकड़ों से पीछे हैं तो लाखों से आगे भी हैं। फिर मनुष्य जीवन का मिलना अपने आप में एक उच्चकोटि के आनन्द का विषय है। कर्तव्यपालन में निरत रहने वाला सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहता है। इच्छित परिणाम न निकला तो इसमें मनुष्य क्या करे? परिस्थितियाँ किसी के हाथ में नहीं। संसार में जो उज्ज्वल पक्ष ही देखते हैं वे बुरी परिस्थितियों में घिरे रहने पर भी अपनी प्रसन्नता खिले फूल की तरह अक्षुण्ण बनाये रहते हैं।

इस प्रकार अपने जीवनक्रम और दृष्टिकोण को उत्कृष्ट बनाकर कोई भी पाँच रत्नों से बना भावनात्मक हार पहन सकता है और कैसी ही परिस्थितियों के बीच रहकर भी कीचड़ में उगने वाले कमल की तरह अपना विशिष्टता को बनाये व बढ़ाते रह सकता है। पंचमुखी सावित्री महाशक्ति का-पंचकोशों का यह व्यावहारिक पक्ष है जिसे दृष्टिगत रख यदि कदम बढ़ाये जायँ तो तदनुसार लाभ ही लाभ मिलते जाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118