प्रज्ञावतार की पुण्य वेला

August 1979

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जब अंधकार की सघनतम वेला के अति समीप ही प्रभातकाल की ब्रह्म वेला जुड़ी रहती है, गर्मी की अतिशय तपन बढ़ चलने पर वर्षा की संभावना का अनुमान लगाया जाता है और वह सार्थक भी होता है। दीपक जब बुझने को होता है तो उसकी लौ जोर-जोर से चमकती है। मरण की वेला निकट होने पर रोगी में हलकी-सी चेतना लौटती है और असामान्य रूप में लंबी सांस चलती हैं। सभी जानते हैं कि मरने की अवधि आने से कुछ ही पहले चींटी के पर निकलते हैं।

अनीति की थोड़ी मात्रा नीतिवानों के सामने चुनौती बनकर पहुंचती और उन्हें अनौचित्य से लड़ पड़ने की उत्तेजना एवं पौरुष प्रदान करती है। जन-जन की दुष्टता को पराभव देखने का अवसर मिलता है। जागरूकता, आदर्शवादिता और साहसिकता का उभार तभी होता है जब अनय के असुर की दुरभि संधियां देवत्व के आक्रोश का आवेश भरती हैं। इस दृष्टि से अनय का अस्तित्व दुखदायी होते हुए भी अंततः उत्कृष्टता के प्रखर बने रहने का अवसर देता है।

किंतु यदा-कदा ऐसी परिस्थितियां भी आती हैं, जब संत, सुधारक और शहीद अपने पराक्रम पराभव को भारी देखते हैं और विपन्नता से लड़ते-लड़ते भी सत्य परिणाम की संभावना को धूमिल देखते हैं। ऐसे अवसरों पर अवतार का पराक्रम उभरता है और ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करता है जिससे पाशा पलटने, परिस्थिति उलटने का असंभाव्य संभव हो सके विपत्ति की विषम वेलाओं में सदा से वही होता रहता है। भविष्य में भी यही क्रम चलेगा। वर्तमान में इसके महातथ्य का प्रत्यक्ष प्रकटीकरण सामने है। युग-परिवर्तन की इस पुण्य वेला में प्रज्ञावतार की प्रखर भूमिका संपादित हुए ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है।


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