समस्याओं के समाधान और भविष्य निर्धारण का सुनिश्चित आधार

August 1979

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शक्ति और साधनों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। सुविधा सम्वर्धन की दृष्टि से उनका बाहुल्य निश्चित रूप से अभीष्ट है। इसलिए इन दोनों को व्यर्थ बताने या उपेक्षा करने का प्रश्न ही नहीं उठता पराक्रम के लिए सामर्थ्य चाहिए और उपलब्धियों के लिए उपकरण। अस्तु इन दोनों का संचय-सम्वर्धन मनुष्य आदिम काल से ही करता रहा है। और जब तक धरती पर उसका अस्तित्व भी है, तब तक करता भी रहेगा। यह स्वाभाविक भी है। उचित भी ओर अभीष्ट भी।

किन्तु ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि शक्ति एवं साधनों का उपायों करने वाली चेतना का स्तर ऊंचा रहना चाहिए। तभी समर्थता और सम्पदा का सहयोग बन पड़ेगा। इसके अभाव में बन्दर के हाथ तलवार पड़ने की तरह मात्र अनर्थ की ही सम्भावना है। दुर्बुद्धियुक्त कुकर्मी का सशक्त होना उसे विनाश के गर्त में और भी तेजी के क साथ धकेलता है। आग में ईंधन पड़ने से वह भड़कती ही है। अन्तरंग की निकृष्टता अभावग्रस्त स्थिति में तो दबी भी पड़ी रहती है, पर साधन मिलने पर तो उसे खुल खेलने का अवसर मिलता है ऐसी दशा में कुकर्मी का वैभव उसके स्वयं के लिए-सम्बंधित व्यक्तियों के लिए और समस्त समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता हे। दुर्बलता बुरी होती हे। पर दृष्टता तो भयानक ही कही जायगी। अभावजन्य दुर्बलता को कोई पसन्द नहीं करता, पर समर्थताजन्य दुष्टता द्वारा कुछ घटित होता है उसे देखकर तो रोमाँच ही जो आता है। जब उस पर नियंत्रण करने वाली शालीनता को अक्षुण्ण और प्रखर रखा जा सके।

पिछले दिनों प्रगति के नाम पर बहुत कुछ हुआ है। इससे अनेकों में कुशलता और तत्परता का बड़े परिमाण में नियोजन हुआ है। अन्यमनस्कता और अकर्मण्यता की हेय स्थिति की तुलना इस पुरुषार्थ को मुक्त कण्ठ से सराहना ही की जायगी। जिन पुरुषार्थियों ने बुद्धिकौशल से विज्ञान, उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रबल प्रयत्न करके सुविधा साधन बढ़ाये है उनके पराक्रम को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। इने पर भी यह अभाव खटकता ही रहेगा कि दूरदर्शिता, विवेकशीलता, उदारता, शालीनता जैसी सत्प्रवृत्तियों का उत्पादन, अभिवर्धन उपेक्षित ही पड़ा रहा। उसकी उपयोगिता वैसी नहीं समझी गई जैसी समझी जानी चाहिए थी। एकाँगी चिन्तन यह बताता रहा कि भौतिक प्रगति ही सब कुछ है। साधनों के बढ़ने पर मनुष्य के सामने उपस्थित होने वाली सभी कठिनाइयों का समाधान हो जायगा।

मनुष्य जितना बुद्धिमान है उतना ही अदूरदर्शी भी। सम्पदा को सब कुछ मान बैठन ओर चेतना की उत्कृष्टता को अपेक्षित रखने की भूल निश्चित रूप से अदूरदर्शिता है। इतिहास साक्षी है। कि निकृष्ट स्तर के व्यक्तित्व समर्थता प्राप्त करने के उपरान्त अपने कुकर्मों से सारे वातावरण को ही विक्षुब्ध करते रहे है। उनका वैभव असंख्यों के लिए अभिशाप बना है। आज भी अस तथ्य को पग-पग पर चरितार्थ होते देखा जा सकता है। सम्पन्न देशों के नागरिक उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग किस प्रयोजन के लिए कर रहे है, उसके क्या-क्या परिणाम भुगत रहे है, उसका प्राण अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों की वास्तविक स्थिति को, ऊपर से चमकीला आवरण उघाड़ कर भली भाँति देखा जा सकता है। सम्पन्नता से सुविधाएं तो बढ़ती है। पर उससे व्यक्ति के अन्तरंग को ऊंचा उठाने में तनिक भी सहायता नहीं मिलती। फलतः मात्र भौतिक सफलता के सहारे जिस स्थिति में जा पहुंचते हे। उससे भारी निराशा होती हे। क्या व्यक्ति, क्या समाज, ओर क्या राष्ट्र सभी पर यह तथ्य समान रूप से लागू होता है कि आवश्यकता बढ़े बिना, बढ़े हुए वैभव से संकटों ओर विग्रहों की बाढ़ आती है।

आदर्शवादिता का नियंत्रण हट जाने पर बलिष्ठता की परिणित उद्दंड उच्छृंखलता में होती है सुन्दरता कामुकता ओर अहमन्यता का पथ प्रशस्त करती है बढ़ा हुआ बुद्धिकौशल छद्म रचने के काम आता है। वैभव क बढ़ते ही दुर्व्यसन चढ़ दौड़ते है। अधिकारों का उपयोग स्वार्थ के लिए अशक्तों के शोषण, उत्पीड़न में होता हे। कला का सौष्ठव पशु प्रवृत्तियों को भड़काने में नियोजित होता है। धनी अधिक धनी बनना चाहता है, समर्थ अधिक सामर्थ्यवान किन्तु वे यह नहीं सोच पाते कि इस अभिवृद्धि का सदुपयोग क्या हो सकता है? दूरदर्शी विवेक के अभाव में तृष्णा ओर अर्हता की पूर्ति ही वह आधार रह जाती है जिसके लिए बाहुल्य ओर वार्धक्य को लगाया को लगाया जा सके। यहां होता है -यही हो रहा है। प्रतिक्रिया सामने है वैभव बढ़ रहा है साथ ही दुर्व्यसन भी। शिक्षा साधन ओर कुशलता संवर्धन के अनेकानेक आधार बढ़ रहे है ओर मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक चतुर, अधिक सतर्क बनता जा रहा है। इतने पर भी यह बढ़ी हुई बुद्धिमता दुरभिसंधियाँ गढ़ने में ही काम आती है।

शान्त चित्त से स्थिति की विवेचना करने पर एक बार तो ऐसा लगता है कि प्रगति की दिशा में दौड़ते हुए हम अवगति के गर्त में गिरने को तेजी से बढ़ रहे। तब क्या प्रगति निरर्थक है? समर्थता ओर संपन्नता बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहे है क्या वह अनावश्यक है। इस प्रकार सोचने की आवश्यकता नहीं है। सम्पन्नता अचेतन है ओर समर्थता अन्धी। इनमें से न किसी को भला कहा जा सकता है न बुरा। पदार्थ, पदार्थ है। ओर बल, बल है। इनमें क्षमता भर है इतनी योग्यता नहीं कि अपना उपयोग किसी भले या बुरे प्रयोजनों के लिए कर सके। आग में ताप तो है, पर उससे यह निर्णय करते नहीं बनता कि वह भोजन पकाने में लगे या अग्निकाण्ड उत्पन्न करने में। यह कार्य किसी सचेतन का है। पदार्थ प्रकृति की प्रेरणा भर अंगीकार करते है।उचित-अनुचित का निर्णय कराना या परिणाम की कल्पना करना उनके वस से बाहर की बात है। इसलिए बारूद, आग, बिजली जैसी समर्थताओं से भी उचित-अनुचित का निर्णय करते नहीं बन पड़ता। चेतन ही उन्हें विकास या विनाश के लिए नियोजित करता है। रेल, मोटर, जहाज, की गतिशीलता सर्वविदित है। किन्तु वे कुशल ड्राइवर के संरक्षण में ही अपनी उपयोगिता का परिचय दे सकते है। अन्यथा वे अनियमित गतिशीलता अपना कर स्वयं नष्ट होने एवं दूसरों को नष्ट करने जैसी दुर्घटनाएं ही उपस्थित कर सकते है।

“एकाँगी प्रगति असंतुलन उत्पन्न करती है। एक पहिए की गाड़ी ओर अर्थात् पक्षाघात से पीड़ित काया कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो अन्ततः भारभूत ही सिद्ध होती है। एक पैर मोटा, एक पतला होना सुन्दरता और गतिशीलता में बाधक ही होता है। फूला हुआ पेट, घेंघे का गला, सूजा हुआ चेहरा, रसौली या फोड़ा होने पर वे अंग अपेक्षाकृत उठे, उभरे दिखाई पड़ते हे, तो भी उस असन्तुलन को शुभ न माना जाता है न सुविधाजनक। जीवन एकांगी नहीं है। उसके दो पक्ष-एक शरीर अर्थात् भौतिक, दूसरा प्राण अर्थात् चेतन, दोनों का सम्मिलित ढाँचा जब तक सुसंतुलित बना रहता है। तभी तक जीवनचर्या चलती है। एक के विलग हो जाने पर दूसरा अपंग, असमर्थ ही नहीं परिहार्य ही हो जाता है। प्राण रहित शरीर तो तेजी से सड़ता है। शरीर रहित प्राण भूत-पलीत जैसी विचित्र स्थिति में जा पहुँचता है। भौतिक प्रगति का लक्ष्मी कहा गया है। पर नारायण के आदर्श के साथ रहने में ही उसकी शोभा है। ऋद्धि-सिद्धि के युग्म में भौतिक और आत्मिक प्रगति का सहसंतुलन ही प्रतिपादित किया गया है। उमा-महेश, शची-पुरन्दर, सी-राम, राधेश्याम आदि युग्मों में प्रगति की उभयपक्षीय आवश्यकता का ही प्रतिपादन है। साधन रहित सद्भावना और सद्भाव रहित साधन की स्थिति अवांछनीय ही मानी जाती है।

पिछले दिनों बुद्धिवाद ओर प्रत्यक्षवाद ने जीवन के तत्व भौतिक पक्ष को ही सब कुछ मान बैठने की भूल की है। तत्व दर्शन के आधार पर प्रतिपादित हो सकने वाली उत्कृष्टता को काल्पनिक कहकर अमान्य ठहरा दिया है। फलतः आदर्शवादिता का नियंत्रण लोक-मानस पर से उठ गया है। अनियंत्रित पशु प्रवृत्तियां समर्थ होने की स्थिति में कितनी उच्छृंखल एवं घातक होती है, इसका अनुमान मदोन्मत्त हाथी, नर भक्षी, व्याघ्र, श्मशान के पिशाच, जलाशय के मगर द्वारा किये जाने वाले विनाश को देख कर सहज ही लगाया जा सकता है। छुट्टल पशु हरी-भरी फसल को चर कर समाप्त कर देते है।अराजकता, उच्छृंखलता के आततायी दुष्परिणामों को जो अनुमान लगा सकते है उन्हें यह भी जानना चाहिए कि चेतना पर से आदर्शवादिता का अंकुश हट जाने पर जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसे सर्वनाशी दावानल से कम विघातक नहीं माना जा सकता। शत्रु देश के आक्रमण गृहयुद्ध, दुर्भिक्ष, महामारी आदि विपत्तियों से जूझने के लिए अवसर आने पर अथवा उसे पहले ही जो सतर्क सक्रियता अपनानी होती, उससे कम नहीं अधिक ही सावधानी चिन्तन क्षेत्र पर आधिक्य जमाने वाले स्वेच्छाचार के प्रति बरती जानी चाहिए।

पिछली पीढ़ी प्रत्यक्षवादी अदूरदर्शिता क आतुर आवेश में मात्र भौतिक प्रगति पर ही अपनानी सक्रियता नियोजित किये रही है। जबकि उससे भी अधिक प्रयास चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया जाना चाहिए था। शरीर से प्राण का मूल्य ओर महत्व अधिक हैं उसी प्रकार समृद्धि से संस्कृति की गरिमा अपेक्षाकृत अधिक समझी जानी चाहिए। इस संदर्भ में जो असंतुलन बरता गया-एकाँगी दृष्टिकोण को अपनाया गा, उसी की प्रतिक्रिया आज अनेकानेक संकटों ओर विग्रहों के रूप समे सामने प्रस्तुत है। जिस तत्परता से समृद्धि समृद्धि का प्रयास किया गया उसी तन्मयता से सद्भाव उन्नयन के लिए प्रबल प्रयास होने चाहिए थे। शरीर से आत्मा का महत्व अधिक हैं इसलिए समृद्धि की तुलना में संस्कृति का प्रमुखता मिलनी चाहिए थी ओर उसी अनुपात से लोक मानस को उत्कृष्टता से भरा-पुरा रखने वाले प्रयास चलने चाहिए थे। वर्षा का पानी, नाला न मिलने पर भयंकर बाढ़ के रूप में विनाश लीला उत्पन्न करता है। इसी का दृश्य हम सब अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखते हैं।

भूल के परिमार्जन का ठीक यही समय है। मानवी दूरदर्शिता से शांत चित्त से विचार करना चाहिए कि क्या पिछली भूल का परिमार्जन करने के लिए अब कुछ नहीं हो सकता? मानवी प्रखरता की समझने वाले यह भी प्रकार जानते हैं कि जिस भी दिशा में आकांक्षा ओर तत्परता का विनियोग होता है। उसी दिशा में तूफानी प्रगति होने लगती है। आज के साधन हाँ विनाश का पथ प्रशस्त करते है, वहाँ उनमें यह क्षमता भी विद्यमान है कि विकास के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में भी चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सके। प्रेस, लाउडस्पीकर, चलचित्र जैसे कितने ही उपयोगी यन्त्र ऐसे निकल पड़े है, जिनकी सहायता से चिन्तन को परिष्कृत करने की दिशा में कई प्रचारात्मक कार्य आसानी से सम्पन्न हो सकते है। युगसाहित्य का निर्मा और प्रसारण एक कार्य है। और ज्ञान गोष्ठियों के माध्यम से मनीषियों द्वारा शिक्षण दूसरा। रचनात्मक ओर सुधारात्मक गतिविधियों की सुगठित रूप रेखा बना कर उनमें असंख्यों सद्भाव सम्पन्नों की श्रम-साधना नियोजित की जा सकती। समृद्धि सम्वर्धन के लिए जिस प्रकार सोचा जाता रहा है, जिस प्रकार उसमें साधन, श्रम तथा मनोयोग का नियोजन होता रहा है। उसी तन्मयता तथा तत्परता से यह भावनात्मक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए सक्रियता अपनाई जाएगी तो कोई कारण नहीं कि प्रयत्न असफल चले जायें। असफलता का एक ही प्रमुख कारण है - उपयुक्त तन्मयता तथा अभिरुचि एवं प्रयत्नशीलता का अभाव। इसे यदि दूरी किया जा सके तो प्रगति किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। भले ही वह उत्कृष्टता संवर्धन के लिए ही नियोजित क्यों न की गई हो?

यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि जिस क्षेत्र में दृष्टिकोण की उत्कृष्टता उत्पन्न होती हे वह न तो शरीर है और न मस्तिष्क। शरीर को सैनिकों, नर्तकों, श्रमिकों, बालचरों की तरह कुछ अभ्यास करा दिए जाये, तो उससे काया भर सधेगी। मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के लिए कितनी ही तरह के पाठ्यक्रम चलते है। दृश्य दिखाये, अनुभव कराए ओर प्रसंग सुनाये जाते हे। साहित्य पढ़ने ओर प्रवचन सुनने का भी क्रम चलता रहता है, उससे जानकारी भर बढ़ती है। आस्थाओं के परिष्कार में कोई खास सहायता नहीं मिलती। नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र आदि पढ़ाने वाले अध्यापकों तक का निजी जीवन जब उच्चस्तरीय न बन सका, आदर्शवादिता पर आये दिन लिखते रहने वाले लेखकों तक का स्तर जब सामान्य लोगों से अधिक ऊँचा न उठ सका-कथा प्रवचनों में संलग्न रहने वाले पुरोहितों तक को जब प्रतिपादनों के अनुरूप आचरण करते न पाया जा सका-तो यही मानना पड़ेगा कि मस्तिष्कीय शिक्षा मात्र जानकारी बढ़ाती है। उसका सीधा प्रभाव उस मर्मस्थल तक नहीं पहुँच पाता जहाँ उच्चस्तरीय आस्थाओं का उत्पादन और उत्थान होता है। यदि व्यक्तित्व के मूल आधार-दृष्टिकोण को परिष्कृत परिमार्जित करना हो तो फिर निश्चय ही पुनर्निर्माण का कार्य क्षेत्र अन्तःकरण को मानकर चलना होगा। तब उन आधारों को अपनाना होगा जो उच्चस्तरीय आस्थायें उत्पन्न करने में काम आते और सफल होते रहे हैं।

आस्थाओं के क्षेत्र को स्पर्श करने वाला एक ही माध्यम है-अध्यात्म, अध्यात्म के चिन्तन को तत्वदर्शन और व्यवहार को धर्म कहते हैं। दोनें को मिलाने से ही समग्र अध्यात्म बनता है। तत्वदर्शन को हृदयंगम करने की पद्धति को योग और व्यवहार में उच्चस्तर का समावेश करने का नाम तप कहा जाता है। तप को साधना और योग को ब्रह्मविद्या कहते हैं। आस्तिकता- आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी मिलने से वह त्रिवेणी बनती है, जिसमें स्नान करने पर रामायण में प्रतिपादित “काक होंहि पिक-बक्हु मराला” का भावनात्मक कायाकल्प संभव होता है।

यों चिन्तन के माध्यम से ही आस्थाएँ जगाई जाती हैं, पर वह उथला नहीं गहरा होता है। तर्क का समावेश तो रहता है पर साथ में श्रद्धा भी जुड़ी रहती है। शुष्क तर्क बुद्धि विलास है। बहस के लिए ही बहस करने वाले-मस्तिष्क से चतुर वकीलों की तरह वह प्रतिपादन करते चले जाते हैं, जिन पर उनकी आस्था तनिक भी नहीं है। सच्चे को फँसाने और झूठे को छुड़ाने के लिए वे वकील भी प्रभावी बहस करते देखे गये हैं, जो वस्तु स्थिति को ठीक तरह समझते हैं। इसलिए मस्तिष्क को माध्यम मानते हुए भी, उसे आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इसके लिए एक ही अवलम्बन है- अध्यात्म। अध्यात्म का प्राण है ऋतम्भरा प्रज्ञा। गायत्री इसी को कहते हैं। ऋतम्भरा प्रज्ञा में विवेक और श्रद्धा इन दो तत्वों का समन्वय होता है। विवेक अर्थात् दूरदर्शिता-श्रद्धा अर्थात् उच्चस्तरीय आस्थाओं में उल्लास भरी, सघन अभिरुचि। यह भाव-संवेदनाऐं जिस चिन्तन और जिस अभ्यास से उभारी जाती हैं, उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। संक्षेप में इसी को प्रज्ञा कहा गया है। गायत्री मंत्र की अन्तरात्मा को “प्रज्ञा की प्रेरणा” माना गया है। प्रज्ञा जीवन्त तभी होती है, जब उसमें प्रेरणा देन-प्रवाह उत्पन्न करने की क्षमता हो। गायत्री महामंत्र में यही सब कुछ है। उसके चौबीस बीजाक्षरों में मान्यताओं, संवेदनाओं और प्रेरणाओं का सुनियोजित तारतम्य विद्यमान है। युग परिवर्तन के लिए-लोकमानस को उच्चस्तरीय बनाने के लिए इस एक महामंत्र के अतिरिक्त और कोई ऐसा कारगर उपाय नहीं खोजा जा सका, जो मनुष्यों में देवोपम आस्थायें जगाने-प्रेरणाऐं उभारने और सक्रियता अपनाने के लिए अभीष्ट लक्ष्य तक खींचता घसीटता चला जाय।

सामयिक विकृतियों से निपटने ओर उज्ज्वल भविष्य का सृजन करने के उभयपक्षीय प्रयोजन जिस एक ही युगान्तरीय चेतना से संभव होने जा रहे हैं उसी के उदय-उद्भव का नाम है-प्रज्ञावतरण। इन दिनों इसी का उषाकाल हैं अरुणोदय सन्निकट है। नव प्रभात की संभावनाऐं प्रकट और प्रत्यक्ष होती जा रही हैं। विकृतियों की तमिस्रा का निराकरण और गतिशीलता उत्पन्न करने की ऊर्जा का सम्वर्धन जिस युग-प्रभात में होने जा रही है, उसी को अपने समय का अवतार कहना चाहिए। सामान्य मानवी प्रयास इतने बड़े अभियान में कम न पड़ जायें इसलिए महाकाल की युग-चेतना का सूक्ष्म जगत में विशिष्ट प्रादुर्भाव हो रहा है। प्रज्ञावतार का आलोक युग-समस्याओं के समाधान की महती भूमिका सम्पादित कर सकेगा इस पर विश्वास करने के ठोस कारण सामने ही विद्यमान हैं।


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