नवयुग की सुनिश्चित सम्भावना में श्रद्धातत्व की भूमिका

August 1979

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सम्पत्ति बढ़नी चाहिए और गरीबी का पूर्णतया अन्त होना चाहिए किन्तु यदि न बढ़ सके और जो है उसी को मिल बाँटकर खाने की नीति अपना ली जाय तो उतने से भी निर्वाह भली प्रकार हो सकता है। शिक्षा बढ़नी चाहिए अशिक्षित एक भी न रहना चाहिए किन्तु यदि वर्तमान शिक्षित अपने शिक्षित होने का लाभ अपने को तथा अशिक्षितों को देने लगे तो इतने से भी काम चलता है। तब विद्या का अभाव किसी को अखरेगा नहीं। ज्ञान जहाँ भी संचित है उसका वितरण और उपयोग की सुविधा हर किसी को प्राप्त होने लगे तो प्राचीन काल का तरह थोड़े से सुविज्ञ व्यक्ति भी जन साधारण को विद्या का लाभ सुविधापूर्वक मिलता रह सकता है। थोड़े से किसान अन्न उगाते हैं पर पेट सभी का भरता है। यही प्रयोग बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में भी चल सकता है। प्राचीन काल के ब्राह्मण ऐसा ही करते भी रहे हैं।

थोड़े से चिकित्सक जन-साधारण के स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं। थोड़े से प्रहरी राष्ट्र की सीमा रक्षा कर सकते हैं। थोड़ी-सी पुलिस अपराधियों से निपटती है। थोड़े से कलाकार व्यापक क्षेत्र में विनोद और उल्लास का वातावरण बनाये रहते हैं। थोड़े से साहित्यकार जन-समाज को दिशा दे सकते हैं। थोड़े से ऋषि अपने समय में शालीनता का स्तर बनाये रहते हैं। थोड़े से राजनेता समूचे देश की सर्वतोमुखी प्रगति की ओर अग्रसर करते हैं। थोड़े से वैज्ञानिक अपने आविष्कारों से परिस्थितियाँ ही उलट देते हैं। सभी लोग श्रेष्ठ समुन्नत हों प्रयत्न यही होना चाहिए, पर यदि उतना न बन पड़े तो मूर्धन्य वर्ग के थोड़े से लोग भी समूचे समाज को समुन्नत बनाये रह सकने में समर्थ हो सकते हैं। एक गृह पति भी आखिर पूरे परिवार के भरण पोषण का उत्तरदायित्व सम्भालता ही रहता है।

प्रज्ञावतार का आलोक समस्त भूमण्डल के प्रत्येक मनुष्य को उपलब्ध होगा। प्राणि जगत का प्रत्येक सदस्य मानवी शालीनता के माध्यम से अपेक्षाकृत अधिक शान्ति और व्यवस्था का लाभ प्राप्त करेगा। किन्तु उसका आरम्भ पर्वत शिखरों पर सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होने वाली प्रभात किरणों का तरह होगा। जागृत आत्माओं का अन्तःकरण ऋतम्भरा प्रज्ञा की भाव सम्वेदनाओं से उमगता दिखाई देगा। उनकी विचारणा संकीर्ण स्वार्थपरता में आबद्ध रहने से इन्कार करेगी। अण्डा पकता है तो उसका छिलका टूटता ही है। चिन्तन का लोभ मोह की कृपणता में बंधे रहना ही भव बन्धन है। विशाल हृदय होना ही जीवन मुक्ति है। श्रद्धा जगेगी तो मनुष्य स्वार्थी नहीं रहेगा। उनका आत्म गौरव अहंता के परिपोषण से नहीं उदात्त आदर्शवादिता अपनाने से ही परितृप्त होगा। ऐसे लोगों की गतिविधियाँ पीड़ा और पतन के उन्मूलन में-सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में ही लगी रहती है। निर्वाह में सन्तोष करने के ‘शम’ को जिनने हृदयंगम कर लिया उनके पास महान कार्य सम्पादन के लिए ढेरों समय, श्रम, चिन्तन बच जाता है। इस बचत पूँजी से वे समाज का, ईश्वर का अनुग्रह प्रचर परिमाण से प्राप्त कर सकते हैं। आत्म गौरव और आत्म सन्तोष को भी यदि महत्व मिलता हो तो श्रद्धासिक्त व्यक्ति को उसकी अनुभूति हर घड़ी होती रहती है।

अनास्था का विष घटने लगे और श्रद्धा का अमृत उमगने लगे तो फिर व्यक्तित्व की गरिमा गगनचुम्बी होती चलती है। ऐसे लोगों के द्वारा जो भी काम होते हैं वे अपनी विशिष्टता और सुन्दरता का परिचय देते रहते हैं। निजी जीवन में वे स्वस्थ, प्रसन्न, सन्तुलित, आशान्वित एवं निश्चिन्त पाये जाते हैं। कौटुम्बिक जीवन में सद्भावना, सहकारिता एवं सुव्यवस्था का वातावरण बना रहता है और छोटे घर घरौंदे स्वर्ग की प्रतिकृति प्रतीत होते रहते हैं। पारिवारिक जीवन में यों आवश्यकता तो सम्पन्नता और सुविधा की भी पड़ती है पर उसकी कमी भी सहन हो सकती है यदि शालीनता की कमी न पड़ने पाये। सम्पन्न परिवारों में भी दुरभि संधियाँ और दुर्भावनाएँ भरी रहती हैं जबकि विपन्नताजन्य कठिनाइयों का बाहुल्य रहते हुए भी स्नेह सौहार्द्र के सहारे हँसता हँसता जीवन सरलता पूर्वक जिया जा सकता है। इस रहस्य को श्रद्धासिक्त मनोभूमि ही समझने और अनुभव करने में समर्थ रहती है। अन्य लोग तो इस कर्म से अपरिचित रहने के लिए विपुल खर्च और कठिन श्रम करने पर भी पारिवारिक सद्भावना के लिए तरसते ही रहते हैं। पत्थर में भी प्रगति जगाने की क्षमता श्रद्धा में होती है। वह जग सके तो परस्पर स्वाभाविक स्वार्थ श्रृंखला में बंधे हुए परिजनों के बिखरने और विद्रूप रहने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।

सजातियों को खींच बुलाने की क्षमता से मानवी अन्तःकरण सदा भरा पूरा रहा है। अपनी आकृति के तो नहीं पर प्रकृति के असंख्यों मनुष्य सहज की संपर्क में आते और सरलता पूर्वक घनिष्ठ होते चले जाते हैं। सामाजिक अव्यवस्था से त्रास तो सभी को मिलता है पर साधारणतया होता यही है कि अपनी निकृष्टता ही अन्य निकृष्ट व्यक्तियों में कस लेती और घनिष्ठ बनाती है। फलतः आग से घनिष्ठता बढ़ाने पर झुलसने का खतरा उठाने की तरह अनेकों दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। जमाना खराब होने की शिकायत आमतौर से ऐसे ही लोग करते हैं जिन्होंने संपर्क बढ़ाने साथी सहयोगी चुनने में उत्कृष्टता की कसौटी पर कसने की आवश्यकता नहीं समझी और निकृष्ट स्तर से बचने की सावधानी नहीं बरती है। सज्जनों को अपने स्तर के साथी ढूँढ़ने में भी अधिक कठिनाई नहीं होती है। ऐसा संपर्क निकटवर्ती न होने पर भी दूरस्थ रहने की स्थिति में भी सहायता करता रहता है यहाँ तक कि दिवंगत महामानवों के साहित्य और चरित्र से भी इतना लाभ उठाया जा सकता है जिनका निकटवर्ती सामान्य व्यक्ति बहुत घनिष्ठ रहने पर भी दे नहीं सकते। सत्संग कुसंग की महिमा सभी कहते और मानते हैं पर यह भूल जाते है कि सौभाग्य दुर्भाग्य किसी पर अनायास आकाश से नहीं टपकता, आग्रह, अनुरोध एवं प्रयत्न करने पर ही उपलब्ध होता है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होती है और सुनिश्चित तथ्य को अमान्य ठहराने की बिलकुल भी गुंजाइश नहीं है। श्रद्धालु के सगे सम्बन्धी सज्जन ही हो सकते हैं। अन्य प्रकार के या तो निकटस्थ होते ही नहीं; यदि किसी प्रकार हो भी जायँ तो वे देर तक साथ नहीं रहते। श्रद्धा ही स्वर्गीय वातावरण का सृजन करती है और इससे पहले सज्जनों का समुदाय अपने इर्द गिर्द जमा कर लेती है।

दूसरों की दृष्टि में किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण तो अनेक आधारों पर हो सकता है पर उसके प्रति सघन सम्मान का एक ही आधार है-चरित्र में प्रामाणिकता बनकर उछलने वाली आदर्शवादी श्रद्धा। यही है किसी व्यक्ति का सबसे बड़ा वैभव जिससे प्रभावित होकर लोग पूरा और पक्का विश्वास करते तथा सघन सहयोग प्रदान करते हैं। महामानवों की चमत्कारी सफलताओं, का प्रधान कारण उन्हें उपलब्ध हुआ जन-सहयोग ही है। आरम्भ में परीक्षाकाल में श्रेष्ठ व्यक्ति को अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए कई प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ता है। यही वह कसौटी है जिस पर किसी की आदर्शवादी श्रद्धा को कसा परखा जाता है। इसके बिना झूठे सच्चे का-नकली असली का भेद भी तो स्पष्ट नहीं हो सकता। जब कोई व्यक्ति लोभ और भय के दबावों को स्वीकार करके अपनी उत्कृष्टता पर अडिग बना रहता है तो जनसाधारण को वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ती है। यही वह परिपक्वावस्था है जिसमें जन सम्मान और जन सहयोग का उदार अनुदान अजस्र रूप से प्राप्त होने लगता है। जन नेतृत्व करने वाले इतिहास के पृष्ठों पर अपने पद चिन्ह छोड़ जाने वाले उच्चस्तरीय सफलताएँ पाने वाले व्यक्तित्वों में अन्य क्षमताएँ तो सामान्य मनुष्यों जितनी होती हैं पर जो असाधारण विशिष्टता पाई जाती है वह एक ही होती है-आदर्शों के प्रति अडिग श्रद्धा। भावना स्तर पर जो सुदृढ़ है। मात्र उन्हीं के लिए अनुकरणीय चरित्र पर अन्त तक सुदृढ़ बने रहना सम्भव होता है। उथले उत्साह वालों के कुछ ही समय में आदर्शवादिता का जोश ठण्डा हो जाता है और वे फिर पुराने ढर्रे पर लौटकर गये बीते स्तर का निर्वाह करने लगते हैं।

लौकिक विशेषताएँ चमत्कृत करती तो है पर वह मात्र आकर्षण होता है। बल, रूप, धन, चातुर्य, कला, कौशल, प्रतिभा प्रभाव आदि से जनसाधारण का आकर्षण भर होता है पर वह अन्तःकरण की गहराई से निकलने वाला वह सम्मान प्राप्त नहीं होता जो महामानवों को देव पुरुषों को उपलब्ध होता है। नर्तकों, विदूषकों, गायकों, धनिकों, विद्वानों की ओर ध्यान भर जाता है और उनकी विशिष्टता देखकर मनोरंजन भी होता है। आकर्षण की परिधि इतनी ही उथली रह जाती है। मनुष्य की आन्तरिक इच्छा जन-सम्मान पाने की रहती है और उचित भी है और आवश्यक भी किन्तु इसका मूल्य आदर्शवादी श्रद्धा से भरा पूरा आचरण ही हो सकता है। इससे कम में उसे खरीदा नहीं जा सकता। उथली वाहवाही तो विदूषक भी प्राप्त कर सकते हैं। ख्याति प्राप्त करने में ही बहुत बार छद्म भी सफल हो जाता है। आततायी भी लोक चर्चा का विषय बन जाते हैं। इतने से किसी को न तो सन्तोष होता है और न कोई महत्वपूर्ण सहयोग मिलता है। सरकस में काम करने वाले नटों का करतब देखकर हैरत भी होती है और तालियाँ भी बजती हैं किन्तु किसी नट के संकट में फँस जाने पर उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आता। स्मारक अभिनेताओं के नहीं उन लोक नेताओं के बनते हैं जिन्होंने उत्कृष्ट कर्तृत्वों के लिए बढ़ चढ़कर आत्म दान देने की भाव श्रद्धा का परिचय दिया। धन्य ऐसे ही व्यक्ति होते हैं। लोक मानस को दिशा प्रदान करने में मात्र ऐसे ही लोगों की चिरस्थायी भूमिका रहती है।

भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने में कई बार अनीति अपनाने वाले भी सफल होते देखे गये हैं; पर वह चिरस्थायी नहीं होतीं। वस्तुस्थिति विदित होते ही लोग सावधान हो जाते हैं और किनारा करने लगते हैं। उपेक्षा, अवज्ञा और असहयोग का दौर आरम्भ होता है और अनीति से प्राप्त सफलता घृणा तिरस्कार से आरम्भ होगी विरोध, संघर्ष और दमन प्रतिशोध तक जा पहुँचती है। ऐसी दशा में अनीति की पगडंडी से जो जितनी जल्दी पाया गया वह तिरोहित भी उतनी ही तीव्र गति से हो जाता है। चिरस्थायी और उच्चस्तरीय सफलताएँ मात्र प्रामाणिक लोगों को ही मिलती है। सहयोग का हाथ बढ़ाने से पहले हर आदमी सोचता है कि सम्बन्ध उन्हीं के साथ सघन किये जाने चाहिए जिनके साथ खतरा न हो। यारवासी तो आवारागर्दी लोगों के बीच भी हो जाती है, पर न तो गहरी होती है, न स्थायी न फलवती। गोटी बिठाने में शतरंज की चाल ही इस उथली दोस्ती के सहारे चली जा सकती है। जड़ न होने के कारण उसके उखड़ने और बिखरने में भी देर नहीं लगती। कई बार तो ऐसी यारी जानी दुश्मनी तक में बदलती देखी गई है। जमाने का दौर दोस्ती की आड़ में दुश्मनी निभाने का है। समाधान कारक यश उथले तरीकों से नहीं प्रामाणिक एवं उदार चरित्र निष्ठा के आधार पर ही मिल सकता है। भौतिक वैभव उपार्जन करने की बात मन में हो तो भी बड़ी उपलब्धियों के लिए प्रामाणिकता और विश्वासनीयता सिद्ध करने के अतिरिक्त जन सहयोग पाने और महत्वपूर्ण सफलताएँ पाने का और कोई रास्ता नहीं है।

अतीन्द्रिय क्षमताएँ-सिद्धियाँ-उपार्जित करने में उथले कर्मकाण्ड सफल नहीं हो सकते। साधनों के पीछे श्रद्धा की शक्ति ही काम करती है। उसका अभाव रहने पर कर्मकाण्डों की रटन लकीर पीटने जैसी उपहासास्पद ही बनकर रह जाती है। उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। अध्यात्म क्षेत्र की सिद्ध पुरुषों में से प्रत्येक को अन्तःभूमिका श्रद्धासिक्त होती है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन जैसी दिव्य सफलताओं के लिए किसी कृत्य विशेष का आश्रय लेने से काम नहीं चलता। उसके मूल में श्रद्धा की शक्ति ही काम करती है। इस उत्कृष्टता के रहते सामान्य से क्रिया-कृत्य भी योग साधना एवं तपश्चर्या का प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं किन्तु यदि भीतर नीरसता छाई हो-भाव सम्वेदनाएँ प्रसुप्त पड़ी हों-तो कितना ही काय कष्ट सहने तथा जप तप करने से भी कुछ बनता नहीं है। क्षेत्र चाहे भौतिक सफलताओं का हो चाहे आत्मिक विभूतियों का-हर हालत में श्रद्धा की सघनता अपेक्षित होती है। उसके बिना लौकिक पुरुषार्थ भी उस स्तर के नहीं बन पड़ते जो बढ़ी-चढ़ी सफलताओं के लिए आवश्यक है। धुन के धनी, लगनशील, तन्मयता और तत्परता बरतने वाले स्वल्प साधनों और नगण्य सामर्थ्यों के रहते अनवरत प्रयत्नरत रहकर पर्वतों के शिखर पर जा पहुँचते हैं इसके विपरीत चंचल चित्त, अस्थिर मति, आस्था रहित मनःस्थिति के व्यक्ति प्रचुर साधनों के रहते, अपनी बढ़ी-चढ़ी क्षमता का भी कुछ लाभ नहीं उठा पाते।

श्रेष्ठ और सुदृढ़ व्यक्तित्व बाह्य साधनों से विनिर्मित नहीं हो सकता। अभ्यास और शिक्षण से उथला शिष्टाचार भर पल्ले पड़ता है। गहराई तो अन्तः श्रद्धा में होती है। पेड़ उतना ही ऊँचा उठता और उतना ही फलता फैलता है जितनी उसकी जड़ें गहरी और मोटी होती हैं। जड़ें दीखती नहीं, दृष्टिगोचर तना ही होता है। इतने पर भी तथ्य अपने स्थान पर यथावत् ही बना रहता है। उथली जड़ वाले पौधे न तो अधिक दिन जीवित रहते हैं और न प्रतिकूल ऋतु प्रभाव ही सहन कर सकते हैं। इसी प्रकार उथली मनःस्थिति के लोग पिछड़ी और उथली जिन्दगी ही जी पाते हैं। आत्म-सन्तोष, जन-सम्मान और दैवी अनुग्रह दे सकने जैसी कोई ठोस सम्पदा उनके पक्ष में होती ही नहीं। फिर मूल्य चुकाये बिना बड़ी उपलब्धियों का अर्जन आखिर हो किस प्रकार? व्यक्ति के अन्तराल में सन्निहित उसकी मूल भूत क्षमता एक ही श्रद्धा इसी को गवाने और बढ़ाने पर मनुष्य पतन के गर्त में गिरता और आकाश जितना ऊँचा उठता है।

नव युग में संसार का समाज का सारा ढाँचा बदल देने की योजना है। निकृष्टता के आवरण उघारे और उत्कृष्टता के आच्छादित चढ़ाये जाते हैं। परिस्थितियाँ बदलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है उसका निर्झर अन्तराल के मर्मस्थल के भाव श्रद्धा के रूप में फूटता है।

परिवर्तन शब्द कहने और सुनने में सरल है। वह रुचिकर भी है और अभीष्ट भी। किन्तु कठिनाई एक ही है कि लगभग असम्भव नहीं तो अत्यधिक कष्टसाध्य उस कार्य को सम्पन्न करने के लिए न तो साधन जुटाने से काम चलता है और प्रयास परिश्रम के पहाड़ खड़े करने से। इसके लिए आदर्शवादी श्रद्धा को उथला नहीं गहरा स्तर चाहिए। यह न तो समाज में, न साधनों में, न श्रम में और न चातुर्य में सन्निहित है यह मणि-माणिक व्यक्तित्व के गहन अन्तराल में समुद्र की तली में पाई जाने वाली सम्पदा है। यही है समर्थता का वह भण्डार जो अनिवार्य उपकरणों की तरह प्रचुर परिमाण में उत्पन्न किया जाना चाहिए।

नवयुग को श्रद्धा युग कहा जायेगा। उसमें सम्पदा का नहीं-समर्थता का नहीं-श्रद्धा का मूल्याँकन है। इसी की मात्रा को नाप तौलकर किसी को क्षुद्र अथवा महान माना जायेगा। इसी सामर्थ्य के बलबूते मनुष्य इतने समर्थ होंगे कि पर्वत जैसी अवांछनियताओं को उलट सकने और स्वाति वर्षा जैसी सत्प्रवृत्तियों को नन्दन वन उगा सकना सम्भव हो सके। समर्थ व्यक्ति ही ऐसे पुरुषार्थ कर सकते हैं जिन्हें असम्भव को सम्भव कर दिखाने जैसा चमत्कार माना जा सके। ऐसा चमत्कारी मनुष्य एक ही हो सकता है-श्रद्धालु। कहा जा चुका है कि विवेक और श्रद्धा का समन्वय ऋतम्भरा प्रज्ञा है। वही गायत्री- ब्रह्मविद्या-अथवा संस्कृति की अन्तरात्मा है। इन दिनों उसी का अरुणोदय प्रज्ञावतार के रूप में हो रहा है। दूसरे शब्दों में इसे यों कहना चाहिए कि लोक मानस में विवेक युक्त श्रद्धा की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। इसी विभूति से सम्पन्न मनुष्यों को प्राचीन काल की तरह देव मानव कहा जायेगा। उनका समुदाय और आदर्शवादी क्रिया-कलाप धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियों का सृजन करेगा। यही है नव युग का आधार तत्व जिसे परिमाण में बरसने के लिए कटिबद्ध हो रहा है। जो इस तथ्य और सत्य को देख समझ सकेंगे उन्हें नव युग को निकटतम देखने में कोई कठिनाई अनुभव न होगी।


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