शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य जीवन में परोपकार ही सार है, हमें सदैव परोपकार में रत रहना चाहिये, किन्तु वह अभियान, दम्भ या कीर्ति के लिए नहीं, आत्म-कल्याण के लिए होना चाहिए। मेरे कारण दूसरों का भला हुआ यह सोचना मूर्खता है। हमारे बिना संसार का कोई कार्य अटका नहीं रहेगा-हमारे पैदा होने से पहिले-संसार का सब काम-ठीक-ठीक चल रहा था और हमारे बाद भी वैसा ही चलता रहेगा परमात्मा इतना गरीब नहीं है कि हमारी मदद के बिना सृष्टि का काम न चला, सके। किसी भिखारी को हमारे ही देने की कोई बड़ी भारी आवश्यकता नहीं’ वह हमारी एक रोटी के बिना भूखा न मर जायेगा।
सच पूछो तो जितना हमें उपकार करने का अवसर दिया है उसका कृतज्ञ होना चाहिये। हमारी उपकार बुद्धि जागृत करके वह हमें ऋणी कर देता है। इससे जो मानसिक उन्नति होती है और आत्मा को जो शक्ति प्राप्त होती है, वह दान लेने वाले को नहीं, वरन् देने वाले को प्राप्त होती है। दूसरों का उपकार करना मानो एक प्रकार से अपने ही कल्याण का प्रयत्न करना है। किसी को एक पैसा देकर हम भला उसका कितना भला कर सकते हैं, किन्तु उसकी अपेक्षा अपना भला हजारों गुना कर लेते हैं। हमारी उदारता का विकास न होने से संसार की रत्ती भर भी हानि न होगी। किन्तु हमारा ही आनन्द स्रोत नष्ट हो जायेगा।
मनुष्यो! परोपकार को अपना जीवन-लक्ष बनाओ। जितनी हो सके दूसरों की भलाई करो। इसमें तुम्हारा ही भला है, तुम्हारा ही लाभ है, तुम्हारा ही कल्याण है।