कार्यक्षेत्र का विस्तार और प्रबन्ध

August 1979

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गायत्री शक्ति पीठों के हर घोंसले में न्यूनतम पाँच-पाँच परिव्राजक रहें और साधु ब्राह्मण एवं वानप्रस्थ की पुण्य-परम्परा को अपने सत्प्रयत्नों से पुनर्जीवित करने में तत्पर रहें। यह योजना इन दिनों चल रही है। यह पंक्तियाँ लिखी जाते समय तक 108 शक्ति पीठों के निर्माण का क्रम संकल्प चल पड़ा। यह आगे भी चलता रहेगा। गायत्री महामन्त्र में 24 अक्षर है। इन पर एक बिन्दु लगा देने से 240 हो जाते है। इतनी संख्या में इस पुण्य-निर्माण को कर सकने में वर्तमान गायत्री परिवार सक्षम है। आशा की जानी चाहिए कि आगामी गुरुपूर्णिमा आने तक यह संख्या पूरी हो जायेगी। देश की विशालता को देखते हुए यह निर्माण जलते तवे पर बूँद पड़ने की तरह स्वल्प ही रहेगा। जब घर-घर जन-जन तक नवयुग का आलोक पहुँचाना और जन-जागरण का अलख जगाना ही लक्ष्य हो तो प्रयासों को भी सुविस्तृत होना चाहिए। शक्ति पीठों की संख्या 2400 होनी चाहिए और उनमें काम करने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या इससे पाँच गुनी प्रायः बाहर हजार तक पहुँचनी चाहिए। यह विस्तार अंक गणना एवं योजना की दृष्टि से बड़ा और भारी प्रतीत होता है किन्तु भारत को ही ले तो इतने बड़े क्षेत्र फल, इतने विशाल जन समुदाय को और इतने महान कार्य को देखते हुए इसे न्यूनतम एवं अनिवार्य ही कहा जायेगा।

धीरे-धीरे गायत्री शक्ति पीठें बनें-इसकी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए नया आह्वान यह किया गया है कि वहाँ कोई उपयोगी व्यवस्था नहीं बन रही है उसे गायत्री परिवार ट्रस्ट के सुपुर्द करने का आह्वान किया जाय। इन स्थानों में थोड़ी-बहुत हेरा-फेरी करके उपरोक्त प्रयोजन के अनुकूल बना लिया जायेगा। रानी रासमणि ने अपना बनाया दक्षिणेश्वर मन्दिर रामकृष्ण परमहंस के सुपुर्द कर दिया था। मन्दिर निर्माताओं और उनके व्यवस्थापकों से अनुरोध किया गया है कि वे अपनी पुनीत सम्पदा की सुव्यवस्था की अपेक्षा करते हुए उसे गायत्री परिवार के सुपुर्द कर दें। आशा की जानी चाहिए कि यह अनुरोध अरण्य रोदन सिद्ध नहीं होगा। देश के अधिकाँश देवालय अस्त-व्यस्त एवं अनुपयोगी स्थिति में पढ़े हुए है। उन पर निहित स्वार्थों का कब्जा है। जिसका लाभ वे व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए उठाते है अथवा संचालकों को उनके निमित्त भारी धन राशि व्यय करनी पड़ती है। इतने पर भी देव प्रतिमा की पूजा अर्चना जितनी लकीर पीटते रहने के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता जिससे देव प्रयोजन की-धर्म धारणा की आवश्यकता पूरी होती हो। देवालयों के निर्माण की जिन तत्वदर्शियों ने कल्पना की-योजना बनाई और प्रेरणा दी उनके मस्तिष्क में निश्चित रूप से एक ही आशा थी कि विनिर्मित देव मन्दिर जन जागृति के केन्द्र बनेंगे। उन्हें पता होता कि इनमें लगने वाली धन शक्ति और जन शक्ति का उपयोग मात्र चिन्ह पूजा के लिए होने लगेगा तो कदाचित इस प्रेरणा को देने से पूर्व वे हजार बार सोचते और कदाचित ही इस प्रयास का प्रोत्साहन करते।

देवालयों को देव प्रयोजन के लिए उपयोग होने की ऋषि योजना को पुनर्जीवित करने का ठीक यही समय है। इससे मन्दिरों का, देवताओं का, उनके निर्माणकर्ता, एवं व्यवस्थापकों का-प्रतिमा पूजन के तत्वज्ञान का गौरव बढ़ेगा। जिन मन्दिरों में मात्र देव प्रतिमा के निवास जितना ही स्थान है उनका उपयोग हो सकना तो कठिन हैं, पर जिनके पास खुला प्राँगण है। जन-समुदाय को बैठने के लिए स्थान तथा छाया का प्रबन्ध है। जल व्यवस्था है उनका उपयोग निस्सन्देह हो सकता है। पुराने देवता यथा स्थान रहेंगे। उनकी पूजा अर्चा पहले की ही तरह वरन् उससे भी अधिक शास्त्रीय पद्धति से होती रहेगी। बने हुए स्थान में ही गायत्री माता को भी प्रतिष्ठापित कर लिया जायेगा। दोनों देवता परस्पर बिना लड़े-झगड़े आपस में परम स्नेह सौहार्द्र के साथ नवयुग के अवतरण का स्वागत करते और आशीर्वाद देते पाये जायेंगे।

उपलब्ध मन्दिरों, देवालयों के मुख्य द्वारा को गायत्री शक्ति पीठों से मिलता-जुलता बनाया जायेगा ताकि देखते ही उनकी एक रूपता के सहारे यह जाना जा सके कि यह संस्थान गायत्री परिवार के तत्वावधान में चल रहा है। इनमें से प्रत्येक में दो कमरे, कार्यालय एवं स्वागत सत्संग के लिए रहेंगे। पाँच परिव्राजकों के निर्वाह भोजन नित्य कर्म के लिए निवास गृह भी इसी में रहेंगे। इस प्रकार जो देवालय दान से उपलब्ध होंगे उनमें से प्रायः बीस हजार की राशि नये सिरे से लगानी होगी तभी वे प्रज्ञाभियान के अनुकूल एवं अनुरूप बन सकेंगे। इतनी राशि उस क्षेत्र से संग्रह हो जाना कुछ कठिन नहीं है। इन परिवर्तित परिवर्धित देवालयों को “गायत्री प्रज्ञा पीठ” कहा जायगा। उन्हें भी नव निर्मित गायत्री शक्ति पीठों के समतुल्य ही माना जायेगा। स्वरूप में अन्तर रहने की बात को ध्यान में रखते हुए इनका नामकरण भी अर्थ की एकता रहते हुए भी भिन्नता का बोध रखने जैसा रखा जायगा।

देवालयों की याचना का यह नया अनुरोध, उसी कठिनाई को हल करेगा जिसके कारण बहुत समय तक प्रज्ञाभियान को गतिशील करने के लिए बहुत समय तक निर्माण साधन उपलब्ध होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती। यों मोह ग्रस्तता का आधिपत्य और निहित स्वार्थों का विग्रह इस संदर्भ में भी कम आड़े नहीं आवेगा किन्तु विवेकशीलता और दूरदर्शिता की शक्तियों के नवोदय को ध्यान में रखते हुए इस बात की पूरी सम्भावना है कि आवश्यक संख्या में उपयुक्त देवालय उपलब्ध हो सकेंगे और वे जन जागृति के केन्द्र बनकर अपनी उपयोगिता एवं गरिमा का परिचय देने लगेंगे।

इस प्रकार निर्माण कार्य सरल हो जायेगा। गायत्री शक्ति पीठों के नवनिर्माण का सिलसिला तो यथावत् चलता रहेगा; पुराने देवालय प्राप्त करने की नवीन योजना से अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचना और भी अधिक सरल हो जायेगा। अब दूसरा प्रश्न इन सबमें नियुक्त रहने वाले परिव्राजकों का रह जाता है। वे भी संख्या की दृष्टि से कई हजार अभी अभी ही चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति देवालयों के निर्माण करने एवं अनुदान से प्राप्त करने से भी अधिक कठिन है। लोक सेवा में रुचि लेने वाली पीढ़ी घट रही हैं। हर व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता की बात सोचता है। लोक-मंगल के अनुदान प्रस्तुत करने की महत्वाकाँक्षा घटते-घटते मिटने की स्थिति में पहुँच गई है। जहाँ है वहाँ यह कठिनाई भी कम नहीं है कि पारिवारिक उत्तरदायित्वों को छोड़कर साधु परम्परा कैसे अपनाई जाय? शक्ति पीठों के परिव्राजकों को पूरा समय ही देना होगा। ऐसी दशा में यदि उनका परिवार आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो तो उसका निर्वाह कैसे हो?

इसके लिए भी एक हल सोचा गया है कि जहाँ शक्ति पीठ अथवा प्रज्ञा पीठ बनेंगे उसी क्षेत्र के युग निर्माण परिजनों में से जिनकी भावना प्रबल हो और जिनके ऊपर गृहस्थ भार हलका हो-उनके लिए अर्थ अनुदान की कुछ व्यवस्था बनाई जाय और उनके सामने खड़ी चट्टान जैसी कठिनाई को यथासम्भव सरल किया जाय। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपने संग्रहित एवं पैतृक साधनों के सहारे अपने परिवार की अर्थ व्यवस्था जुटा लेंगे। वे अभी भी जुटा लेंगे और आगे भी। असंख्य लोग इस आधार पर अपने भाव-भरे अनुदान प्रस्तुत करेंगे। साधु ब्राह्मणों पर पारिवारिक उत्तरदायित्व न्यूनतम ही रहता था और वे जनता पर अधिक भार न पड़ने देने की दृष्टि से यथासम्भव हलके से हलका ही रखते थे। अभी भी वह परम्परा चल निकली है। देव-मानवों का युग पुनः वापिस लौट रहा है और समयदानी परिव्राजकों का वर्ग अनवरत गति से बढ़ रहा है।

इतना होते हुए भी जिस पर कार्य को विस्तृत और सरल बनाने के लिए गायत्री शक्ति पीठों के साथ-साथ गायत्री प्रज्ञापीठों की सहायक योजना बनाई गई हो उसी प्रकार आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी परिव्राजकों के अतिरिक्त एक दूसरी पंक्ति और भी खड़ी करने की बात खींची गई है। सृजन शिल्पियों की यह दूसरी पंक्ति ऐसी होगी जिसके लिए पारिवारिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए अर्थ साधन जुटाने होंगे। ऐसा करने पर भी उनसे पूरा समय निश्चित होकर देने की अपेक्षा की जा सकेगी, सामयिक आवश्यकता और कार्य की विशालता को देखते हुए इस प्रयास को भी कार्यान्वित करने का निश्चय किया गया है।

गायत्री शक्ति पीठों का कार्यक्षेत्र प्रायः तीस मील के दायरे में बनाया जायेगा। इसमें औसत 30 गाँव हो सकते है। इसी क्षेत्र से परिव्राजक उपलब्ध हो तो इससे कई लाभ होंगे। भाषा संबंधी कठिनाई न रहेगी। रास्ते देखे समझे होंगे। लोगों की प्रकृति और परम्परा का ज्ञान होगा। पूर्व परिचय के सहारे कार्य विस्तार में सुविधा होगी। बाहर से भेजे गये व्यक्ति भी यह सब सुविधाएं जुटा तो सकते है, पर उन्हें समझने और करने में अपेक्षाकृत देर लगेगी। अतएव सरलता इसी में रहेगी कि शक्ति पीठ के के कार्य क्षेत्र के अथवा उसके इर्द-गिर्द के कार्यकर्ता ही ढूंढ़ें और प्रशिक्षित किया जाये। वे अपने चर परिवार की देखभाल भी करते रह सकेंगे और युग सृजन के पुण्य-प्रयोजन में अपनी सेवा भी नियोजित रखे रहेंगे। सभी परिव्राजकों का प्रारम्भिक प्रशिक्षण शान्ति कुंज में होगा और दे जब अपना कार्य ठीक तरह कर सकने के लिए सुयोग्य बन जायेंगे। समय-समय पर इनका प्रशिक्षण बीच-बीच में भी केन्द्र में बुलाकर किया जाता रहेगा।

आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी परिव्राजकों के अतिरिक्त दूसरी पंक्ति के उन भावनाशील लोक-सेवियों की भर्ती बड़ी संख्या में करनी होगी जिनके लिए परिवार निर्वाह की अर्थ व्यवस्था जुटाई जानी है। यह अनुदान वेतन स्तर का तो नहीं हो सकता और न कर्मचारियों जैसी विधि व्यवस्था अपनाई जायेगी। न्यूनतम निर्वाह और अधिकतम अनुदान ही लोक सेवी की सनातन परम्परा है। उसी का निर्वाह इन सृजन शिल्पियों के निमित्त होगा। योग्यता के आधार पर नहीं आवश्यकता के आधार पर भिन्न-भिन्न कार्यकर्त्ताओं की स्थिति पर विचार करते हुए यह निश्चय किया जायेगा कि किसका पारिवारिक निर्वाह न्यूनतम कितने अनुदान में चल सकता है। संस्था की स्थिति और कार्यकर्ता की आवश्यकता का तालमेल बिठाते हुए ही यह निर्णय किया जाना है कि इच्छुकों में से किन्हें लिया जा सकता है किन्हें नहीं। इसके लिए कोई वेतन मान नहीं रखा गया है। परिस्थितियों का तालमेल ही वह मापदण्ड रहेगा जिसके आधार पर सामयिक आवश्यकताओं पूर्ति के लिए परिव्राजक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति होगी और प्रस्तुत शक्ति पीठों में कार्यक्षेत्रों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता पूरी की जायेगी। इस प्रकार परिव्राजकों की भूमिका निभा सकने की जिनकी स्थिति है उनसे संपर्क साधने और आवेदन पत्र प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है।

शक्ति पीठों के केन्द्र स्थान बनने कार्यकर्त्ताओं की नियुक्ति होने कार्यक्षेत्रों की परिधि निर्धारित होने के साथ ही यह क्रम चालू हो जायेगा कि परिव्राजक नियमित रूप से संपर्क क्षेत्र में जाने लगें। विचारशील लोगों से संबंध बनाये। उन्हें युग साहित्य पढ़ने देने, वापिस लेने का का क्रम चलायें। जन्म दिन मनाने बच्चों के षोडश संस्कारी के लिए परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था करें- पर्व त्यौहारों पर सामूहिक जन सम्मेलन बुलाये। रामायण आदि की कथा कहें। इस प्रकार बढ़े हुए संपर्क का उपयोग मिशन की कार्य पद्धति का स्वरूप समझाने और उसके प्रति सहानुभूति आकर्षित करें। युग निर्माण योजना की सदस्यता की शर्त दस पैरा तथा एवं घन्टा समय नियमित रूप से लगा है। ऐसे सदस्य इस संपर्क क्षेत्र में निरन्तर बढ़ते ही रहेंगे उन स्थानीय सदस्यों की सहायता से विचार क्रान्ति अभियान के अंतर्गत आने वाले सभी शिक्षण परक रचनात्मक एक सुधारात्मक कार्यक्रम गतिशील होंगे।

व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण की शत सूची योजना में बौद्धिक नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति के सभी तत्वों का समावेश हैं जन-मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन का विशाल कार्य क्षेत्र सृजन शिल्पियों के सामने है। कहाँ की स्थिति में क्या कार्य, किस स्तर पर आरम्भ किया और आगे बढ़ाया जा सकता है इसका दिशा निर्धारण तो पहले से भी हो सकता है, व्यवहार में कब, कहाँ, क्या किया जा सकता है इसका निर्णय, निर्धारण सामयिक सूझबूझ ही करेगी।सृजन के असंख्यों पक्षों में से जहाँ जो, जितना जन पड़े वह करना ही चाहिए। इसमें स्थानीय सहयोगियों की योग्यता एवं अभिरुचि को भी महत्व देना होगा।

ऊपर की पंक्तियों में मात्र उस कार्य पद्धति की चर्चा है जो शक्ति पीठों के केन्द्र स्थानों में-परिव्राजक मण्डली द्वारा-संपर्क क्षेत्रों में प्रथमतः क्रियान्वित होगी। यह आरम्भिक उपक्रम है। सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिए आदर्शवादी एवं सेवा-भावना व्यक्तियों को अपने-अपने ढंग से कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा। लोभ, मोह की वितृष्णा में उलझी हुई प्रतिभाएं इस नव सृजन की ओर मुड़ने लगे-संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाने लगे तो नव सृजन के लिए आवश्यक क्षमता का उत्पादन प्रचुर परिमाण में हो सकता है और उसके सहारे इतना कुछ हो सकता है जितना किसी समर्थ शासन अथवा सुविस्तृत संगठन के लिए भी संभव नहीं है।

आरम्भ हिन्दू धर्म के कार्य क्षेत्र से किया गया है क्योंकि मिशन के सूत्र संचालकों का सहज संपर्क उसी समुदाय के साथ है। यह शुभारम्भ की सरलता भर है। इसे बन्धन न समझा जाय। युग सृजन का अभियान जाति,धर्म एक देश की परिधि तक सीमित नहीं रखा जा सकता। वह सार्वभौम एक सर्वजनीन है। अस्तु परिधि बन्धनों से आगे बढ़ने और दृष्टिकोण एवं कार्य क्षेत्र को निरन्तर व्यापक बनाया जाता रहेगा। उस आलोक में सभी देशों, धर्मों एवं जातियों को नव-जीवन प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। शिक्षा, उद्योग, स्वास्थ्य, सहयोग जैसे सभी महत्वपूर्ण प्रयोजनों को प्रगतिशील प्रोत्साहन मिलेगा। अवांछनियताओं, अनैतिकताओं, मूढ़-मान्यताओं, अन्ध परम्पराओं एवं कुरीतियों की विभीषिकाएं मानवी पतन और पराभव का प्रधान कारण बनी हुई है। उनके साथ संघर्ष करने का कार्य भी सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के समतुल्य ही महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पक्ष की उपेक्षा नहीं की जा सकती। लंका दहन और समुद्र सेतु बाँधने की दोनों योजनाएं एक ही महान लक्ष्य के अविछिन्न अंग है। इसे आरम्भ से ही ध्यान में रखा गया है और अन्त तक तथ्यों को दृढ़ता पूर्वक अपनाया जाता रहेगा।

नव सृजन का कार्य निश्चित रूप से बहुत बड़ा है उसके लिए धर्म, समय एवं मनोयोग के अतिरिक्त साधनों की भी आवश्यकता पड़ेगी ही। इसका स्त्रोत बूँद-बूँद से घड़ा भरने की लोक श्रद्धा के साथ जोड़ा गया है। दस पैसा रोज के ज्ञान घट-मुट्ठी-मुट्ठी भर अनाज जमा करने वाले धर्म घट की मिशन की आवश्यकता पूरी करते रहेंगे। लोक शक्ति जगेगी तो सत्प्रयोजनों में लोक श्रद्धा की भी कमी नहीं रहेगी। विकृत धर्म तन्त्र को जब इतना विलासी और अपव्ययी परिपोषण मिल रहा हैं तो कोई कारण नहीं कि जीवन्त धर्म धारणा को इस धर्म प्राण देश में अपनी स्वल्प आवश्यकताएं जुटाने में असफल रहना पड़े। सरकारी अथवा साधन संबंधों की अपेक्षा न करते हुए इतना बड़ा श्रम साध्य, साधन साध्य, कार्य जिस महाकाल की प्रेरणा से आरम्भ हुआ हैं। वह लोक-श्रद्धा के साथ बरसाने वाले साधनों की भी व्यवस्था करेगा। यह विश्वास ही अपने बजट एवं कार्यक्रम में सुदृढ़ और सुनिश्चित आधार है।


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