सुरक्षा साधना का समर्थ ब्रह्मास्त्र

August 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपने युग की व्यापक और भयानक समस्याओं के आधारभूत कारण दो है। एक चेतना क्षेत्र में बढ़ती हुई असुरता और दूसरा भौतिक क्षेत्र में बढ़ती हुई विषाक्तता।

(1) आत्मिक क्षेत्र में बुद्धि विपर्यय एवं आस्था संकट। भ्रष्ट चिन्तन ने दुष्ट आचरण को बढ़ाया है और अवाँछनीयता को उच्छृंखलता के स्तर तक पहुँचने का अवसर मिला है। फलतः अनीति अपनाने में एक-दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। दुष्प्रवृत्तियाँ क्रमशः परम्परा बनती और मनुष्य स्वभाव में सम्मिलित होती जा रही है। फलतः अनीति की क्रिया-प्रतिक्रिया में भयंकर विक्षोभ हो रहे है। उत्पीड़न और विग्रह के फलस्वरूप अनेकानेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ उत्पन्न हो रही है। साथ ही ऐसा वातावरण भी बन रहा है जिसके फलस्वरूप दैवी विपत्तियों का टूटना और विनाश के अविज्ञात कारण बनना स्वाभाविक है, यह है चेतना क्षेत्र में बढ़ती हुई असुरता और उसकी प्रतिक्रिया।

(2) भौतिक क्षेत्र में विषाक्तता बढ़ने के कुछ तथ्य सर्वविदित है। वायु मण्डल में जिस तेजी से विघातक विष बढ़ता चला जा रहा है इसी जानकारी जन-साधारण को भले ही न हो, विश्व की परिस्थितियों पर बारीक की दृष्टि रखने वाले बुरी तरह चिन्तित हैं। बढ़ते हुए औद्योगिक संस्थान, कल-कारखानों से विषैला धुँआ प्रचुर परिमाण में निकलता हैं। रेल-मोटर आदि सवारियाँ इस कोढ़ में खाज बनकर उस विषाक्तता को बढ़ाने में और भी अधिक योगदान देती है। अब तक जो परमाणु विस्फोट हो चुके हे उनका विकिरण इतनी बड़ी मात्रा में मौजूद है जिनका मन्द प्रभाव अगली पीढ़ियों के लिए जीवन संकट उत्पन्न करेगा। नित नये विस्फोटों का सिलसिला रुक नहीं रहा है और अणु युद्ध की नंगी तलवार आये दिन मानवी अस्तित्व के सिर पर चमकती रहती है।

तीसरा नया सिलसिला अभी-अभी शुरू हुआ है बारह मंजिली इमारत जितनी विशालकाय और 85 टन भारी एक अन्तरिक्षीय प्रयोगशाला ‘स्काई लैब’ का मलवा जमीन पर गिरने का संकट लोक चिन्ता का विषय बना हुआ है। मलवा गिरने का स्थानीय संकट उतना बड़ा नहीं है जितना कि उसके कारण उत्पन्न हुआ प्रकृति गत असन्तुलन। उल्कापातों का प्रभाव सारे वातावरण पर पड़ता है और दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करता है। उसे प्राचीन और अर्वाचीन, खगोलवेत्ता समान रूप से स्वीकार करते है। गिरने से तात्कालिक हानि कितनी हुई यह छोटा प्रश्न है। चिन्ता का विषय यह है कि पृथ्वी के वायु मण्डल में छेद और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले ऐसे अन्तरिक्षीय प्रहार कैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते है। इस प्रकार के उपद्रव पृथ्वी और सूर्य के मध्यवर्ती ‘ओजने’ जैसे उपयोगी आच्छादनों को अस्त-व्यस्त कर सकते है और धरती की जीवनोपयोगी परिस्थिति में भयानक उथल-पुथल कर सकते है। संकट टला नहीं आरम्भ हुआ है। स्काईलैब इन नई श्रृंखला का अन्त नहीं वरन् श्री गणेश है। ऐसी ही छोटी बड़ी प्रयोगशालाएं प्रायः एक हजार की संख्या में पृथ्वी की परिक्रमा कर रही है। समयानुसार उनका बूढ़ा होना और मरना स्वाभाविक है। वे प्रेत अन्ततः धरती पर ही गिरेंगे और आये दिन स्काईलैब पतन की तरह चिन्ता का विषय बनेंगे। मृतक यान प्रेतों को धरती पर उतार-उतारकर लाने वाली अन्तरिक्षीय रेलगाड़ी कल्पना का विषय तो है पर जब तक नौ मन तेल जुटने पर राधा का नाच होगा तब इन प्रेतों का ताण्डव नृत्य विनाश की दिशा में इतना ताण्डव कर सकता है कि उसके संदर्भ में पश्चाताप करना ही शेष रह जाय।

गुत्थियाँ सूक्ष्म जगत की हैं। चेतना क्षेत्र और प्रकृति क्षेत्र दोनों की ही अपनी अदृश्य परिधि है। उसका प्रभाव प्रत्यक्ष जगत पर पड़ता हैं। इन अदृश्य क्षेत्रों में विपत्ति बरसने लगे और उसका उपचार भौतिक उपायों एवं साधनों से बन नहीं पड़ेगा। अदृश्य जगत का सूक्ष्म क्षेत्रों का परिशोधन समाधान अदृश्य स्तर की आत्मिक ऊर्जा के सहारे ही बन पड़ना सम्भव है।

इसी प्रक्रिया में अदृश्य प्रयत्नों की एक दूसरी कड़ी जुड़ती है। वह सूक्ष्म जगत के परिशोधन और अनुकूलन से संबंधित है। पिछले साल रजत जयन्ती वर्ष में गायत्री महा पुरश्चरण अभियान चला था। उसमें जप और हवन के धर्मानुष्ठान का व्यापक विस्तार हुआ। प्रायः 25 लाख व्यक्तियों ने उसमें भाग लिया। यों इनका रचनात्मक एवं भावनात्मक आधार भी था, किन्तु मूलतया उसे चेतना जगत के वातावरण/और प्रकृति जगत के वायु मण्डल के परिशोधन की सूक्ष्म प्रक्रिया भी समझी जा सकता है। यज्ञ में वायुमण्डल की और जप ध्यान से वातावरण की शुद्धि होती है। इन अदृश्य आधारों को गणित की तरह कागज प्रत्यक्ष दिखाना तो कठिन है, पर जो प्रतिक्रियाओं को देखकर तथ्यों का अनुमान लगाने पर विश्वास, करते है उन्हें यह जानने और मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इन अदृश्य उपायों का अदृश्य जगत के अनुकूलन पर कितना उपयोगी प्रभाव हो सकता है। होता रहा है और हो रहा है।

उन प्रयासों को अगले दिनों भी जारी रखा जाना हैं। गायत्री महापुरश्चरण अभियान एक वर्ष तक सीमित न रखकर दो वर्ष का घोषित किया जा चुका है। वह श्रृंखला आगामी गायत्री जयन्ती तक जून 80 तक चलेगी। इस अवधि में नये स्थानों पर विशिष्ट जोर दिया जायेगा। यों जहाँ इस वर्ष पुरश्चरण हो चुके वहाँ भी फिर से उसे करने पर कोई रोक नहीं है, पर क्षेत्र-विस्तार और नये व्यक्तियों तक आलोक पहुँचाने की दृष्टि से नई जगहों में जप हवन से संबंधित पुरश्चरण योजना को अग्रगामी बनाया जाना अधिक उपयुक्त है।

नये स्थानों पर छोटे आयोजन ही सरल पड़ते है। इसलिए गत वर्ष जिस प्रकार 25 कुण्डी आयोजनों की प्रधानता रही है वैसी इस वर्ष न रहेगी। समर्थ शाखाओं के लिए 25 कुण्डी आयोजन कुछ कठिन न थे। पुराने संगठन के बल पर उन्होंने उन्हें सरलतापूर्वक सम्पन्न भी कर लिया, पर नई जगहों में नये व्यक्तियों से वैसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतएव इस वर्ष दस लाख जप और नौ कुण्डी के महापुरश्चरण आयोजनों का ही क्रम चलेगा। यो 5 लाख जप और पाँच कुण्डी यज्ञ वाले छोटे और 25 लाख जप तथा पच्चीस कुण्डी यज्ञों वाले आयोजन भी जहाँ तहाँ होते रहेंगे, पर प्रधानता नौ कुण्डी आयोजनों की ही रहेगी।

गत वर्ष जहाँ आयोजन हुए हैं, जिनने उन्हें सम्पन्न कराया है; उन पर उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि अभी से समीपवर्ती क्षेत्रों का दौरा करें- धार्मिक प्रकृति के नये लोगों से संपर्क करें। तथ्य समझाये और श्रद्धा उभारें। वर्षा ऋतु समाप्त होते ही नये आयोजनों की नई श्रृंखला चल पड़नी चाहिए। आश्विन नवरात्रि से आरम्भ होकर चैत्र नवरात्रि तक के मध्यवर्ती छः महीनों में इन प्रयासों का अधिकांश भाग पूरा हो चुकेगा। ग्रीष्म ऋतु में भी कुछ तो हो ही सकते है, पर उनमें असुविधा बहुत रहती हैं। वस्तुतः मई, जून के दो महीने विशुद्ध रूप से तीर्थ यात्रा के हैं और उन्हें आयोजनों से नहीं जन-साधारण के लिए प्रव्रज्या अभियान के अंतर्गत तीर्थ यात्रा के रूप में ही प्रयुक्त होना चाहिए। इस वर्ष तक महापुरश्चरण आयोजन ग्रीष्म ऋतु में भी हुए हैं, पर अगले साल उन्हें आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों के मध्य छः महीने की अवधि में ही पूरा कर लिया जायगा। इस संदर्भ में गुरुपूर्णिमा समाप्त होते ही नये वर्ष की नई योजना बननी प्रारम्भ हो गई है। समर्थ शाखाओं के प्रखर परिजनों ने अपने-अपने क्षेत्र में कार्य आरम्भ भी कर दिया है और तिथियाँ निश्चित करने के लिए गायत्री तपोभूमि के साथ संपर्क बनाने का गत वर्ष जैसा उपक्रम फिर आरम्भ हो गया है।

इस वर्ष इस संदर्भ में वातावरण, परिशोधन का नया प्रयास नये आधार पर नई तैयारी के साथ आरम्भ हुआ है। वह है- सुरक्षा प्रयोजन के लिए आरम्भ की गई पौन घण्टे की ध्यान धारणा। इसका प्रारम्भ 1 जुलाई से 31 जुलाई तक की अवधि में एक महीने के लिए स्काईलैब सुरक्षा के संदर्भ में हुआ है, पर यह इस एक महीने में ही समाप्त नहीं हो जाएगा; वह एक वर्ष तक आगे चलेगा। अन्तरिक्षीय मलवा गिरने से संकट का अन्त नहीं प्रारम्भ हुआ ह। साधना क्षेत्र के वरिष्ठ लोगों का ध्यान इस स्तर का पुरुषार्थ करने के लिए प्रथम बार आह्वान किया गया है। आत्म-बल के बलिष्ठों का सामूहिक शक्ति का अर्जन करने और उसे विश्व संकट के निमित्त झोंक देने का यह प्रथम प्रयोग और उसके परिणाम दोनों ही दृष्टि से सफल रहा है। संकट की जैसी आशंका थी वैसी सामने नहीं आई। स्वल्प कालीन सूचना पर इतनी तत्परता से कार्य संलग्न होने से जिस कठिनाई की आशंका थी वह निर्मूल सिद्ध हुई। गायत्री परिवार के चौबीस लाख साधकों में से अधिकाँश ने उसमें परिपूर्ण श्रद्धा के साथ भाग लिया। यह छोटे किन्तु विशिष्ट लोगों द्वारा सम्पन्न हुए आयोजन पूर्णतया सफल हुए।

आशंकाओं के पर्वत अभी भी जहाँ के तहाँ खड़े हैं। अशुभ संभावनाऐं भविष्य वक्ताओं के द्वारा ही नहीं प्रत्यक्ष का विवेचन करने वाले लोगों के प्रतिपादनों द्वारा भी स्पष्ट है। इनके निराकरण का आत्यंतिक उपाय आत्म शक्ति के दिव्य आयुधों का प्रयोग ही हो सकता है। अणु शक्ति जैसी विषाक्तताओं और विभीषिकाओं से लोहा लेने की सामर्थ्य, मात्र उसी में हैं।

जुलाई का सुरक्षा अनुष्ठान पूरा होते ही अब उसे नये सिरे से एक वर्ष के लिए और आगे संशोधित रूप से चलाने के लिए आत्म-बल के बलिष्ठों से कहा गया है। जुलाई से बड़े सामूहिक आयोजन एक स्थान पर एकत्रित होकर सम्पन्न किये गये और अन्त में हवन हुआ। अगले वर्ष सामूहिक रूप से तो यह प्रयोग होंगे पर आयोजनों के रूप में नहीं। प्रयोग सम्मिलित आत्म-शक्ति उभारने का है इसलिए होंगे तो सामूहिक ही पर समूहों को छोटे रूप में विभाजित रखा जायगा। न्यूनतम पाँच साधकों की इकाइयाँ बनेंगी। अधिकतम चौबीस की। यों कोई अकेले भी करना चाहे तो रोक नहीं, पर अभीष्ट प्रभाव न्यूनतम पाँच व्यक्तियों की संयुक्त साधना से ही इस परिमाण में सम्भव होगा कि व्यापक वातावरण को प्रभावित करने में कहने लायक योगदान द सकें।

जिनकी साधनाएं पिछले समय से निष्ठापूर्वक चलती रही है; ‘जो कई अनुष्ठान कर चुके और दूसरों को प्रेरणा देने में जिनकी प्रतिभा कारगर सिद्ध होती रही है; उन्हें ‘सुरक्षा साधना में अग्रणी होना चाहिए। साथी दूसरों को भी बना सकते हैं, सहयोग दूसरों से भी ले सकते हैं। किन्तु अग्रणी वरिष्ठों को ही करना चाहिए। ठीक नौ से सवा नौ बजे तक सस्वर गायत्री पाठ। सवा नौ से पौने दस तक आधा घण्टा ध्यान। सर्दियों में यह समय एक घण्टे पहले खिसका दिया जायगा। इस साधना का समय 1 अक्टूबर से फरवरी अन्त तक 8 से पौने नौ तक रहेगा। ध्यान प्रक्रिया इतनी ही है कि “गायत्री परिवार के लाखों सदस्य अपनी प्रचण्ड आत्म ऊर्जा एक साथ एक वारगी एक लक्ष्य की पूर्ति के लिए उत्पन्न कर रहे हैं। वह संकल्प-शक्ति ऊपर उठती है और अन्तरिक्ष की ऊँची परतों पर छतरी की तरह छा जाती है। इससे वातावरण एवं वायुमण्डल में भरे हुए दुरित धरातल पर गिरने से पूर्व ही रुक जाते हैं। संयुक्त आत्म-शक्ति का छाता उन्हें ऊपर ही रोक देता है। इतना ही नहीं इस छत्र उपकरण का प्रहर करके अदृश्य जगत पर छाई हुई विभीषिका को किसी अविज्ञात क्षेत्र में धकेल कर भावी विपत्तियों से बहुत हद तक परित्राण पाया जाता है।”

न्यूनतम पाँच-पाँच वरिष्ठ साधकों के ‘सुरक्षा यूनिट’ हर जगह बनने चाहिए। उनके साधना क्रम नियमित रूप से चल पड़ने चाहिएँ। ऐसे ‘यूनिट’ अपनी मण्डली को शान्ति कुँज से पंजीकृत करा लें ताकि उन्हें इस प्रयोग से काम आने वाली अभीष्ट सामर्थ्य अनुदान के रूप में नियमित रूप से मिलती रहे।

आशा की जानी चाहिए कि प्रज्ञावतार का यह ब्रह्मास्त्र युग विभीषिकाओं को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का अभिनव सृजन करने की दुहरी भूमिका सम्पन्न करेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles